हमारे ढंग
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हमारे ढंग
(अरसात सवैया )
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रंग पड़े बिखरे इतने फिर भी कब हो हम मुग्ध निहारते ।
फूल खिले दिखते न हमें बस अंध बने हम वक्त गुजारते ।।
नित्य चलें पथ में पर शूल पड़े बिखरे चुनते न बुहारते ।
है परवाह कहाँ हमको बिगड़े अपने कुछ कर्म सुधारते ।।
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राधे…राधे…!
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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