हमारे आंगन की सब लड़कियां
लड़कियां खेलती थीं – गाती थीं
अब नहीं गाती हैं बच्चियां,
उलझ जाती हैं गोरैया – सी जाल में
खेलती नहीं हैं लड़कियां…
अक्सर उनके बुत तोड़ने की कोशिश होती है,
टूटे खिलौने मिलते हैं सड़कों पर |
बुरा है – डरती हैं लड़कियां ,
अपनी ही उम्र डराती है उन्हें|
स्कूलों- बाजारों में, चौराहों पर, घरों में…
लड़कियां चुप रहती हैं |
पर
टूट कर भी जिंदा रहती हैं लड़कियां.
जिद्दी हैं|
एक दिन आएगा
लड़कियां बोलेंगी,
इस शहर की वह निर्दोष सुबह होगी
जब नाचेंगी, गाएंगी
हमारे आंगन की सब लड़कियां |