हमारी आजादी हमारा गणतन्त्र : ताल-बेताल / MUSAFIR BAITHA
सनातन हिंदू मानस तैयार करने वाले ग्रन्थ रामचरितमानस के रचयिता कवि तुलसीदास की एक पंक्ति है-पराधीन सपनेहु सुख नाही। यदि हम स्वाधीन नहीं हैं, तो हमें सपने में भी सुख नसीब नहीं हो सकता। इस उक्ति का लक्ष्य अर्थ स्पष्ट है। असीम या कि अबाध सुख की प्राप्ति के लिए किसी देश के नागरिक को स्वतंत्र रहने की जरूरत होती है।
15 अगस्त,1947 फिरंगियों से मिली भारतीय आजादी को यदि हम इसी सुख के नजरिये से देखें तो पाएंगे कि स्थिति बहुत आह्लादक नहीं है। हमें राजनीतिक आजादी तो जरूर मिल गयी है, पर कई सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चों पर आजादी जैसा बहुत कुछ हासिल करना अभी बाकी है।
आज जबकि देश को स्वतंत्र हुए 69 वर्ष बीत रहा है, हर नागरिक के हाथ में पर्याप्त सुखों की पोटली समायी होनी चाहिए थी। लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हो सका है। हमारे अपनों की नुमाइंदगी ही परायों को टक्कर देनेवाली या कहिए बढ़कर है!
स्पष्टतः हर ऊंच नीच की खाई को ठंडे बस्ते में डालकर स्वतंत्रता के लिए जिस एकता और संघर्ष का निवेश हुआ था, वैसा एका बनाने का प्रयास स्वतंत्रता को सहेजने में हम नहीं कर पाए हैं। कहां तो स्वतंत्रता संघर्ष रूपी मंथन से पूरा अमृतकलश पाकर इसका नवजीवन संचार में उपयोग होना चाहिए था, जबकि हम अमृत से भी कहीं विष जैसा काम ले रहे हैं। यानी आजादी मिलती भी दिखाई दे रही है तो टुकड़ों में, समाज के सर्वांग को नहीं बल्कि पौकेट्स में, उन तबको को ही जो फिरंगी शासन में भी शासक वर्ग के साथ थे, रिसीविंग एंड पर नहीं थे।
अनेक सकारात्मक बदलाव एवं प्राप्तियों के बावज़ूद आजाद भारत में भी कई स्थितियां कमोबेश वैसी ही म्लान हैं जैसी कि गुलाम भारत में थीं। मसलन, गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास, धार्मिक-जातिगत वैमनस्य जैसे सामाजिक कोढ़ अब भी देश के हर अंग को वैसे ही व्यापे-खाए जा रहे हैं। हमारे आजाद मन में सम्यक सन्मति नहीं जगती-यह बड़ा प्रश्न है, चितनीय है।
दलित अधिकारों के पुरोधा संविधान निर्माता अपूर्व चिंतक एवं विद्वान डा. भीमराव अंबेडकर भारतीय समाज की समरसता में बाधक बनने वाले ऐसे ही तत्त्वों के नियामक प्रभुवर्गों से अपनी घोर असहमति रखते थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ऐसे ही असंख्य लोगों को नेतृत्वकारी भूमिका में देख उनको भविष्य के भारत की तस्वीर डरावनी लगी थी। अंग्रेजों ने अपने छोटे शासन के दौरान भारतीय कुरीतियों, अस्वस्थ परंपराओं के प्रति जो निरोधात्मक रवैया अपनाया था तथा वैज्ञानिक चिंतन को सहलाने वाली शिक्षा-व्यवस्था का आगाज किया था, वह परम्परा से शिक्षा-वंचित दलितों-दमितों के हक में जाता था। इनके उलट ‘अपनों’ के पराया-मन नेतृत्व पर अंबेडकर का विश्वास नहीं था जो उनके भोगे-सच से परिचालित था। इसलिए उन्होंने कहा भी-अंग्रेज देर से आए और जल्द चले गए।
आज भी गुणवत्तापूर्ण साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं जीपनयापन की स्थिति नहीं बनी है। जातीय, धार्मिक, पंथीय, गुटीय संकीर्ण पहचान एवं संघर्ष कम होने के बजाय जोर पकड़ रहे हैं एवं इन आधारों पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन, अलगाव, लॉबिंग बढ़ा है। यह जहाँ हक-हुकूक पाने, वंचनाओं से मुक्ति के लिए है वहाँ तो जायज है पर जहाँ दूसरों के लोकतान्त्रिक अधिकारों और अपने कर्तव्यों के विरुद्ध है, वहां सर्वथा अनुचित। यह कटु सच्चाई है कि आज भी हमारा समाज जाति-धर्म के खांचों में नाभिनालबद्ध है। हमारा पुरातनपंथी परंपराप्रिय समाज स्वतंत्रता के लाभों को जन-जन तक समग्रता एवं संपूर्णता से पहुंचाने में बाधक है, तो इसलिए कि समाज में हर जगह ऐसे ही वर्चस्वशाली लोग प्रभावी व नेतृत्वकारी भूमिका में हैं। ईमानदार नेतृत्व अब भी भारतीय समाज व राजनीति में दूर की कौड़ी है।
कुछ असहज प्रश्नों से अपने को बाँध कर, बिंध कर हमें आजादी के खोए-पाए का हिसाब पाने में मदद मिल सकती हैं। 69 वर्षों की आजाद उम्र पाकर भी हमारा देश अपनी जनता के 69 प्रतिशत को भी आखिर क्यों नहीं साक्षर कर पाया है? ध्यान रहे, साक्षर होना ही शिक्षित होना नहीं है। शिक्षित जनों की संख्या तो और भी कम है।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद 1948 में आजाद होनेवाला विशालतम जनसंख्या वाला तथा हर मोर्चे पर पिछड़ा देश चीन अब विकास के हर मानक पर भारत से मीलों आगे निकल गया है। अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा शक्तिमान राष्ट्र बन गया है। दुनिया के स्तर पर खेल, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, वाणिज्य-व्यापार तथा राजनय जैसे क्षेत्रों में उसकी प्रभावकारी भूमिका है जबकि ऐसा कर पाना हमारे लिए अभी महज स्वप्न ही है। क्या यह हमारे लिए चिंता, चिन्तन और आत्ममंथन का विषय नहीं होना चाहिए कि चीन की तेज गति और हमारी कछुआ चाल क्यों है? अभी ब्राजील के रियो शहर में चल रहे ओलिंपिक खेलों में जहाँ चीन अमेरिका को अपने शानदार प्रदर्शन से लगभग टक्कर देने की स्थिति में है वहीं 124 करोड़ वाले हमारे देश के 124 प्रतिभागियों वाले ओलिंपिक दल को एक मेडल पाने के लिए तरसना पड़ रहा है।
हमारे यहां निर्धनता, बेरोजगारी, अशिक्षा के शिकार जनों की पांत तो शैतान की आंत सरीखी अंतहीन लंबाई की है। यह दयनीय और भयानक स्थिति क्यों बनी हुई है? दुनिया 21वीं सदी की वैज्ञानिकता ओढ़ रही है और भारत में अंधविश्वास, चमत्कार, भूत-प्रेत, टोना-टोटका, भविष्यफल जैसे अकर्मण्यता को बढ़ावा देने वाले बकवासों पर विश्वास का जोर बढ़ता ही जा रहा है। मीडिया, खासकर टीवी चैनलों ने तो इन बकवासों की अंधाधुंध कमाई करने में सबसे आगे का मोर्चा ही संभाल लिया है। कुकुरमुत्ते की तरह इन चैनलों पर अंधविश्वास बांटने बांचने वाले साधुवेशी और अन्य व्यवसाय-बुद्धि अवसरवादी लोग उगे मिलते हैं। विज्ञान और तकनीक के अवलंब से ही विज्ञान और तकनीक की नव भावना को कुतर कर अंधविश्वास की यह कार्रवाई बड़े पैमाने पर कर पाना लोकतंत्र की बड़ी चुनौती है। लोकतंत्र के ऐसे जंग लगते पाये से, प्रहरी से अब हम क्या उम्मीद करें?
हमारे देश में तो अलबत्ता विज्ञान की तो ऐसी की तैसी ही हो रही है। यहां भी मुझे सनातनता की हर रुग्ण भावना के रक्षक तुलसी ‘बाबा’ याद आ रहे हैं-जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। हमने विज्ञान के वरदानों से भी अपने अंधविश्वासों का मन-महल कम नहीं सजा रखा है। सबसे बड़ा उदाहरण तो मीडिया के चैनलों पर ही अंधविश्वास का प्रकोप है। जबकि विज्ञान के उपादानों से ही चैनलों की दुनिया बनी है। कंप्यूटर जनित तकनीक से नमक, मिर्च, मसाला लगाकर भविष्यफल बांचे-बेचे जा रहे हैं। भाग्यवादियों के इस बाजार का कारोबार अप्रत्याशित गति से प्रगति पर है, यहां अरबों खरबों का वारा न्यारा हो रहा है। पूजन-स्थलों पर विज्ञान की नेमतें -एयरकंडीशन, पंखा, लाउडस्पीकर, टीवी, सीडी आदि का जमकर उपयोग हो रहा है, पर हमारा अनुरागी चित्त है कि विज्ञान से छंटाक भर भी आंदोलित नहीं हो रहा है और अंधश्रद्धाओं को आराम से निगल पचा जा रहा है। हम आधुनिक तन हो रहे हैं पर मन हमारा उसी सोलहवीं सदी की कूपमंडूकता में रमा है। शरीर पर हम कामोत्तेजक अंगों को उभारने-दिखाने वाले क्षीण वस्त्र धारण कर आधुनिक हुए जा रहे हैं, पर मन से अंधभक्ति, अंधश्रद्धा, काईंयापन, बेईमानी जैसे विकार तनिक भी तिरोहित नहीं हो रहे। धर्म और जाति का विभेद बंधन टूटने-शिथिल होने का नाम नहीं ले रहा है। उचित-अनुचित तरीकों से अपना स्वार्थ साधने और दूसरों की हकमारी करने में हमें कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। सदी का महानायक कहा जाने वाला व्यक्ति भी बड़ी ढिठाई से अपने को, अपने बहू-बेटे को किसान करार देने की वकालत करता है और औने-पौने दाम पर जमीन खरीदता है। गोया, हमारा यह फिल्मी महानायक ‘एंग्री यंग मैन’ की काल्पनिक भूमिका से ‘हंग्री ओल्डमैन’ की वास्तविक दुनिया में उतर आया है। ऐसी ही नायकी से हमारा समूचा समाज ही फिलवक्त अभिशप्त नहीं है क्या? वंचना के बरअक्स स्वतंत्रता का मधुर स्वाद भी थोड़ा-बहुत जरूर मिलता दिखता है।
स्वतंत्रता की सबसे बड़ी उपलब्धि राष्ट्रीयता की मजबूत भावना का निर्माण और राष्ट्रनिर्माण में व्यापक जन भागीदारी रही। राजनीतिक प्रक्रिया में देश, राज्य व क्षेत्रीय स्तर राजनातिक भागीदारी के साथ साथ स्थानीय-निचले स्तर पर नागरिकों की स्वतंत्रता एवं अधिकारों की वैधानिक गारंटी भी महत्वपूर्ण रही। वैज्ञानिक-तकनीकी उपलिब्धयों के कतिपय रचनात्मक उपयोग भी हुए हैं। मौसम, कृषि, उद्योग-धंधे, कल-कारखाने जैसे क्षेत्रों में वैज्ञानिक उपचारों से भरी सहायता मिल रही रही है। अंतरिक्ष एवं रक्षा क्षेत्रों में भी हमने कई उल्लेखनीय उपलब्धियां अर्जित की हैं। सामरिक महत्त्व के हथियारों, यंत्रों, संयंत्रों में भी अब हम काफी संपन्न हुए हैं। संचार, यातायात, पठन-पाठन, कार्यालय संचालन जैसे अवयवों में भी विज्ञान के उपयोग ने गुणात्मक सुधार लाया है। यह सब एक स्वतंत्र देश की ही प्राप्तियां हैं।
समाज की गति पर नजर दौड़ाएं तो वहां भी हमें स्वतंत्रता का असर यत्र-तत्र नजर आता है। शासन-प्रशासन, नौकरी-चाकरी आदि में भी अब कमजोर सामाजिक-आर्थिक तबकों के लोगों की अपर्याप्त लेकिन महत्वपूर्ण भागीदारी नजर आती है। अबके मिले लोकतंत्र में साधारण किसान-मजदूर का बेटा भी बड़े-बड़े ओहदों पर जा पा रहा है, जबकि एक गैरलोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था में ऐसा होना कतई मुमकिन नहीं था। वंचित तबका भी अब अपने अस्मितापूर्ण व संपन्न जीवन के सपने की ओर बढ़ते हाथ-पांव मार सकता है। हालांकि इस राह में अभी रोड़े कम नहीं हैं। आजादी का सुफल यह भी है कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली दुःस्थिति में निरंतर सुधार जारी है। जनता अपनी बात अपने जनप्रतिनिधियों के माध्यम से शासन-व्यवस्था में भी रख पाने की स्थिति में है। यह बात अलग है कि यहां भी बहुत से अगर-मगर जनित व्यवहारिक अवरोध कदम-कदम पर हैं।
कुल मिला कर स्थिति यह है कि स्वतंत्रता ने हमें एक संपूर्ण सार्थक मानवीय जीवन जीने की आदर्श स्थिति-परिस्थिति-परिवेश में ला जरूर खड़ा किया है, पर हमारे समाज की मानसिक बुनावट ही अभी इतनी अलोकतांत्रिक अथवा गुलाम व सामंती-ब्राह्मणी है कि स्वतंत्रता का अभी सम्यक समरस दोहन होना संभव नहीं दिखता। समाज के अनेक वंचित वर्गों के लिए स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है। उन्हें अब भी स्वतंत्रता जनित सुख व धन-धान्य अप्राप्त हैं। स्थिति संतोषप्रद नहीं है लेकिन हमें निराश भी नहीं होना है। हमें अपने समाज को सबके रहने लायक बनाना है।