‘ हमारा बचपन ‘……
हमारा बचपन सिर्फ हमारा नही था
परिवार – कॉलोनी भर सबका था
और ना जाने कितनों का था ,
हमारी हर बात पर सब राय देते थे
हम उनकी राय पर ज़रा भी मुँह नही बनाते थे
उनकी राय को हम सब सर-माथे लेते थे ,
जब भी कोई बड़े घर आते या बाहर मिल जाते
रिश्तों से अनजान लपक कर पैर छूए जाते
हम झोली भर कर आशीर्वाद साथ ले आते ,
खाने के वक्त किसी के भी घर पहुँच जाते थे
प्रेम से सबके साथ हम भी खिलाये जाता थे
फिर आना कह कर बड़े प्रेम से बुलाये जाते थे ,
सिर्फ अपने अपने नही होते थे सबके होते थे
चाची-ताई , बुआ-मामा , दादी-दादा जो भी थे
मेरे उनके होते और उनके हम सबके होते थे ,
शादियों में दिनों पहले सब इकठ्ठे होते थे
सारे काम पल भर में झट से बंट जाते थे
हँस कर प्रेम से चुटकियों में सब हो जाते थे ,
गर्मियों की छुट्टियां सच की छुट्टियां होती थीं
ना होमवर्क मिलता ना कोई चिंता होती थी
लूडो – कैरम और ताश की बाजियां जमती थीं ,
अपने बेड और अपने रूम से अनजान थे
जहाँ नींद आई वहीं पैर फैला लुढ़क जाते थे
नींद में बड़बड़ाते हुये भी चैन की नींद पाते थे ,
सूरज ढ़लते ही चाट वाला तवे बजाता आता था
किसी मुँह में पानी किसी को स्वाद दे जाता था
हम सबको उस चाट का स्वाद बहुत भाता था ,
लाईट जब भी जाती सबकी मौज हो आती थी
पूरी कॉलोनी में आईस-पाईस खेली जाती थी
पकड़े जाने पर ‘धप्पा’ की आवाज़ आती थी ,
अकेलेपन का ना तो तब कोई भी खेल था
आपस मेंं मिल कर रहना ही बस मेल था
घर में रहने पर तो घर घर ना होकर जेल था ,
त्योहारों पर सब आपस में मिलते – जुलते थे
सबके हाथों के पकवानों का स्वाद लेते थे
फिर अपने घर भी आने का न्योता देते थे ,
कैसे टेलीफोन पर बार-बार नम्बर घुमाते थे
घुम-घुमा कर सबके नम्बर याद हो जाते थे
ये नम्बर हमारी याददाश्त अच्छी कर जाते थे ,
कैसे अख़बार में रोल नम्बर देखे जाते थे
नही मिलने पर बार-बार देखने को कहते थे
पास होने की सब मिल कर खुशियां मनाते थे ,
वक्त वो जो बीत गया एक मीठा सपना था
वक्त वो हम सबके करीब हमारा अपना था
वक्त वो आज भी जैसे सुनहरी कल्पना था ,
बीते वक्त के खजाने से कितनी यादें निकालूँँ
चलो इसी बहाने उनको एक-एक कर संवारूँ
आँखों में बसा कर लाडले जैसा ही निहारूँ ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 26/02/2021 )