हमारा देश और हम ही काफ़िर कहलाये
हमारा देश और हम ही काफ़िर कहलाये
चलो चलकर हम कासगंज को देख आये
बहुत हो गई बदमाशी नर्मदिल वालों पर
चलो चलकर अपने दो दो हाथ कर आये
काफ़िरों के चराग़ बुझाने से बूझेंगे नहीं
चाहें वो नफ़रत भरी आंधीयों को चलाये
हमारे इस शहर में हमारी हार के चर्चे हुए
क्यों नहीं एक शतरंज की बाज़ी खेल आये
वो जला रहें है नशेमन पर हमारे बिजलियाँ
उनके नापाक गुनाहों की तौबा हम करवायें
वो ये समझ बैठे कि हम चूड़ियाँ पहने हुए है
कदम मिलाकर चलो की उनका नक्श मिटाये
बहुत हुआ अशोक राजनीति की बातें करना
है हिम्मत तो राष्ट्र के पथ पर कदम बढ़ायें
अशोक सपड़ा हमदर्द की क़लम से दिल्ली से