हमारा आनंद उत्सव
जब मन हो प्रफुल्लित ,
किसी से बांटने को हृदय ,
में उठे उल्लास ।
परंतु उत्सुकता धरी की धरी रह जाती ,
कहां इतना समय किसी के पास ।
अपनी प्रसन्नता को अपने में ही संजो कर ,
मन बांवरा अपने एकाकीपन में ही ,
मनाता अपना आनंद उत्सव ,
अपने आप से ही प्रफुल्लित होकर ।
पीड़ा तो होती है थोड़ी सी ,
और कुछ अश्रु कण भी निकलते हैं ,
नैनों के कोरो से ।
परंतु किसी अपने की विवशता को समझकर ,
नहीं करते कोई आक्षेप और निंदा ।
ऐसे में कभी ईश्वर के संग बतियाते ,
तो कभी फूलवारी में जाकर पुष्पों की
सेवा कर ,मनुहार कर ही ,
मना लेते हैं हम अपना आनंद उत्सव ।
यूं ही प्रफुल्लित होकर ।