हमनवा हमनवा
212 212 212 212
इक तुम्हीं थे मेरे हमनवा हमनवा…
बाकी जीवन में क्या ही बचा हमनवा।
आंँख भर देखता मैं तुम्हें ही तो था….
तुमने सोचा नहीं मेरे उल्फत का क्या…
हस्र देखो कि कैसे मैं पागल हुआ…
सोचकर तुमको अब बेवफ़ा हमनवा।
एक पल में भुलाया है तुमने मुझे…
सांँस चलती रही पर मैं जी न सका…
तुम तो अपना ही लो गैर के हुस्न को…
बाक़ी मैं मर सकूंँ दो दुआ हमनवा।
बेबसी मैं कहूंँ या कहूंँ शौक़ है
तुमने मेरी तमन्ना दिया गैर को……
खुश रहो गर तुम्हें हर खुशी मिल गई
मेरा क्या था तुम्हारे सिवा हमनवा
देखता हूंँ कि कबतक संवारेगा वो…
भूत उल्फत का सर से उतारेगा वो
तुम तमाशा बनाकर गए प्यार को
तुमको रोना है मेरे बिना हमनवा…..
दीपक झा “रुद्रा”