हबीब
ये मुहब्बत करने वाले भी अजीब निकले,
जज़्बातों के रईस, दिल के ग़रीब निकले,
झूठे थे वो तमाम अफ़साने सच्चे इश्क़ के,
हकीकत से दूर, ख्वाबों के क़रीब निकले,
इल्म-ओ-हुनर इलायदा है इश्क़ का जनाब,
मरीज़ ही यहाँ माहिर-ए-मर्ज़ तबीब निकले,
दीवाने ने तो पढ़ लिया है कलमा इश्क़ का,
अब क्या फिक्र, लिखा कैसा नसीब निकले,
हुस्न के बाज़ार में एक से एक झंडे गड़े हुए,
आशिकों का इम्तिहाँ लेते, वो सलीब निकले,
इक रिश्ते की चाह में कर दिए सब क़ुर्बान,
दोस्त समझे थे जिन्हे, आखिर रक़ीब निकले,
‘दक्ष’ वस्ल-ओ-हिज़्र, यकसां वक़्त से चलते,
रंज-ओ-ग़म, इश्क़ में असली हबीब निकले,
विकास शर्मा ‘दक्ष’
इल्म = ज्ञान ; इलायदा = अलग ; माहिर-ए-मर्ज़ = बीमारी के विशेषज्ञ ; तबीब = इलाज़ करने वाला / डॉक्टर ; सलीब = सूली / cross ; रकीब = प्रतिद्वंदी ; वस्ल-ओ-हिज्र = मिलन और वियोग ; यकसां = एक समान ; हबीब = प्रियतम