हनुमत की भक्ति
सभा लगी थी राम राज की, राज्य तिलक सब देखन आये
राम सिया जी संग बैठे थे, सबको दर्शन देते जाए
राज्य तिलक पूर्ण हुआ जब, सीता बोली हनुमत से तब
‘केसरी नंदन तुम प्रिय इनको, बातें तुम्हरी करते जब तब’
ये कहके एक हार मँगाया, दिया केसरी नंदन को वह
‘भेंट स्वीकारो हनुमान ये’, बैठी जानकी वापस ये कह
हार उधेड़ा हनुमान ने, एक-एक मोती देखत जाए
पूर्ण सभा कुछ समझ न पावे, राम सिया देखे मुस्काये
सभापति सभी मौन से बैठे, चकित से देखत जाए वो क्षण
कोई समझ न पाता कुछ भी, तभी अचानक बोले विभीषण,
‘माता ने ये भेंट दी तुमको, हनुमान तुम हो बड़े भागी
इसको तोड़ क्यो डाला तुमने, कौन जिज्ञासा तुममे जागी’
मुस्काये केसरी नंदन बोले, ‘रघुपति को ढूंढत जाता हूँ,
किसी मोती में राम न मिलते, इसलिए सब फेंकत जाता हूँ,
मैं तो भक्त हूँ राम नाम का, सदा ही उसको जपता हूँ,
और किसी काम आ जाऊ प्रभु के, उस मौके को तकता हूँ,
बाकी सबके मंदिर होते, भक्ति वचन वही कहते हैं,
पर मेरे ह्रदय में बस्ते राघव, सियाराम वही रहते हैं’
ये कहके हनुमत ने फिर, छाती अपनी चीर दिखाई
उसमे दीखते श्री राम थे, जानकी माँ भी नज़र में आयी
देख हनुमत की ऐसी भक्ति, सब जन हर्षित होते थे
पर हनुमत को न कुछ दिखता, सिर्फ राम ही दर्शित होते थे
हनुमान जी बड़े प्रेम से, श्री राम को रहे निहार
भक्ति युक्त वचन उनके सुनके, ‘जय हनुमत! ‘ गूँजा दरबार