हंसना रास न आया
जग को हँसना रास न आया ।
जग को यह स्वीकार कहाँ था
ब्याहे जाएँ सपने मेरे
छोड़ चन्द्रिका राजभवन को
ले मेरे मंडप में फेरे
करे उजाला घर मंदिर में
पूनम अपनी नेह-किरण से
पग-पग पावन हवनकुण्ड हों
ऑंगन मेरे अरुण चरण से
इसीलिए तो वधू पक्ष को
मूढ़ बताया चतुर दक्ष को
लौट गए सब बीच राह से
इक भी रिश्ता पास न आया ।
जग को हँसना रास न आया ।
जागा क्या इक गीत होंठ पर
दहक उठी हर मन में ज्वाला
कब्जा ली हो जैसे मैंने
सबके हिस्से की मधुशाला
खींचा इक तलवार हाथ में
दौड़ा दूजा लेकर भाला
छू ली जैसे किसी शूद्र ने
विप्र गौड़ की तुलसी-माला
काटा कोई डोर हँसी की
दाबा कोई कोर खुशी की
किसी सितमगर को भी मेरा
पलभर का मधुमास न भाया ।
जग को हँसना रास न आया ।
अशोक दीप
जयपुर