हँस रहे थे कल तलक जो…
हँस रहे थे कल तलक जो, आज रोते दिख रहे हैं।
जोश में मय पी गए अब, होश खोते दिख रहे हैं।
हर कहीं झगड़ा कराएँ, है यही बस काम इनका।
बीच सबके द्वेष के ये, बीज बोते दिख रहे हैं।
दिग्भ्रमित से चल रहे सब , कौन सच का पथ सुझाए ?
पीठ पर निज पाप का ही, बोझ ढोते दिख रहे हैं।
आ रही चलती युगों से, धर्म की अनमोल थाती।
सिरफिरे कुछ आज लेकिन, मूल्य खोते दिख रहे हैं।
नाम मिटता संस्कृति का, लुप्त होतीं सभ्यताएँ।
जागतीं नित लालसाएँ, भाग्य सोते दिख रहे हैं।
पीढ़ियाँ ही बस बदलतीं, काम सब होते वही हैं।
आजुबा थे कल जहाँ पर, आज पोते दिख रहे हैं।
राज अपने खुल न जाएँ, सोच में डूबे हुए सब,
एक दूजे की सभी मिल, पाल धोते दिख रहे हैं।
दो कदम दो साथ ‘सीमा’, मुश्किलें हँस पार कर लूँ।
रास्ते क्यों आज सब ये, दूर होते दिख रहे हैं ?
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)