हँसो
—————————-
हँसो।
हँसोगी नारायणी?
हँस सकोगी प्रियदर्शिनी?
हँसती थी तुम बहुत।
गलियों में भागती-दौड़ती।
गुड्डों की माँ बनकर
ब्याह के रस्म निभाती।
तुम्हारी हँसी से उछलती थी
गाछ-वृछों की टहनियाँ।
जब तुम डाल लेती थी झूले।
हँसते थे फसल और क्यारियाँ
तुम्हारे मृदुल स्पर्श से,
जब मेड़ों पर दौड़ती तुम थी
और तुम्हारे पिता हो उठते थे उल्लसित
तेरी बाल सुलभ जिज्ञासाओं से।
हँसो।
हँस सकोगी मूक-भाषिणी।
जन्म का दर्द छिपाये
प्रतिदिन के अपने होने में
संशयित।
आतुर निगाहों में इच्छाओं से
पराजित।
कातरता की परिभाषा!
हँस सकोगी, हे आशा?
तुम हंसी थी जब ब्याही गयी थी
मण्डप की भव्यता सी।
ब्याह के मण्डप निर्माण से नहीं,
किन्तु,आशय से भव्य ही होते हैं।
फिर कब हँसी कहो,योगिनी।
तानों को जीती गृहस्थिन।
नमक से ले रस्म-रिवाज निभाने तक
कोप-भवन में भी,कहो मानिनी।
वह उन्मुक्त हँसी
फिर कब हँसोगी!
जानता मैं हूँ
कि
कभी नहीं।
इस अनाचारी समाज में
हँसना ही चाहोगी नहीं
हंसाने का सब उपक्रम करते हुए भी।
तुम्हें अधिकार है,हँसने का।
अधिकार से आगाह होना
तुम्हारा भी अधिकार है।
अधिकार नहीं मांगा,चाहा भी नहीं
विनम्रता या अदृढ़ता!
पराजय का भय गुलाम बनाता है।
पराजित हो जाना योद्धा।
तुम भयभीत हो।
अधिकार की समझ पैदा करो
और हँसो, तुम मर्दानी।
———————————————