सड़े गले दहेज़ कानूनों की आड़ में
मैं भाई अगर उसकी साज़िशों का मारा नहीं होता
सच कहता हूँ हम दोनों में कोई बंटवारा नहीं होता
अच्छी नहीं लगती मां की आँखों में ये नमी मुझकों
जाकर कह दो उसको खून ये कभी खारा नहीं होता
अगर नहीं आती हम दोनों के बीच काली गुत वाली
समझ ले गर उनकी साजिशें ,दिल बेचारा नहीं होता
वो काली नागिन सी जुल्फ़े ले डसने को आती थी यूँ
सफ़ीना डोलने को भवरों में पर मुझे गंवारा नहीं होता
सड़े गले दहेज़ कानूनों की आड़ लेकर आई डायन वो
पर नहीं समझते मां बाप से ऐसे ही छुटकारा नहीं होता
अपने साये से मेरे हिस्से की धूप भी खाई जो उन्होंने
ना फैले नफ़रत घर में ये किस्सा क्यों दुबारा नहीं होता
सर्द रातें भी जलाती मुझकों इस क़दर क्या बतलाऊँ
नींद ग़मों से उम्र भी लेगई,बेबसी में इशारा नहीं होता
अशोक सपड़ा हमदर्द