स्वार्थ
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स्वार्थ निस्वार्थ पर सदैव क्यों है भारी
लोग अक्सर भूल जाते हैं अपनी बारी
सत्य वैसे तो असत्य पर जीतता आया
पर सत्य को चुकानी पड़ती कीमत भारी
क्यों नहीं समझ पाते हैं हम पर पीड़ा
रोते चिल्लाते पीड़ित होते हैं स्वयं कारी
खुद के ही फ़ायदे के सौदे हैं करते आए
औरों को फ़ायदे वाले लद गए व्यापारी
करते हैं दिन रात काम बेचारे कर्मचारी
मलाई खाने को मौका भूनते अधिकारी
सत्कार,मान सम्मान के देते बड़े उपदेश
बड़े बड़ेरों को पूजने वाले न रहे सत्कारी
करते आए हैं अपना उल्लू सीधा करते
बनेरों पर उड़ाते हैं उल्लू बन गिरधारी
मगरमच्छी आँसुओं से पसीजते हैं दिल
आँसू न कभी पौंछते हैं दिल के पंसारी
मनसीरत निस्वार्थी स्वार्थियों तले दबा
चाह के भी न निकल पाए दलदल भारी
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)