स्वाभिमान
स्वाभिमान आज बस किताबों में,
या बस बोलने में रह गया।
इसको इन्सान अपने अंदर,
जगाना भूल गया।
महज़ पैसे के लिए इन्सान,
ने अपने ज़मीर को बेच दिया,
स्वंय ही अपने सीने को छेद दिया।
आज इन्सान इतना,
ख़ुदग़र्ज़ है कि,
पैसा ही उसके हर,
दर्द का मर्ज है।
आज इन्सान में स्वाभिमान नहीं है,
महज़ पैसे की प्यास बाकी है।
तभी तो आज रिश्ते नहीं,
महज़ नाम बाकी है।
जरा सा भी आज इन्सान में,
खुद के लिए स्वाभिमान नहीं।
क्योंकी आज के इन्सान में,
सच्चाई व ईमानदारी का नाम नहीं।