स्वयं भाग्य लिखूँ औ’ मिटाते जाऊँ
सिर्फ़ फंतासी सोच-सोच कर ही गुजर गए थे साल
अपनी बारह बोगियों में 365 कम्पार्टमेंटों को समेटकर
गोलियों की गति से सभी नक्षत्र, राशि, पूर्णिमा, अमावस्या भी
मेरे प्रियजनों के जन्मदिन और दादा-दादी की स्मृतियाँ भी !
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जनवरी में नहीं कह सकता था कि कैसा होगा यह साल
अब तो पूछो ही नहीं ! जिंदगी हुई बेहाल, जीवन-ढर्रे बदहाल
जिसे छूकर गुदगुदाते, उन सब चीजों पर अब ताले पड़ गए
खाने को भी कम पड़ गए, तो दूर का ढोल सुहावन हो गए !
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हम मिथ पर जीनेवालों में नहीं, परखकर निबाहनेवालों में हैं
गलत कुछ भी नहीं कहा था- कभी शेषन, कभी खेरनार ने
विचारों को खूँटी पर क्यों टाँगते हो, भाई ? ये तो अपने-अपने हैं
जब हमारे मुँह पर हमारे बोल ना हो, तो हम आजाद ही क्यों हुए ?
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सिर्फ स्नेह लिए शब्द नहीं चाहिए, क्योंकि इससे पेट नहीं भरते
आजतक, अलजजीरा, रवीशों को कैसे सुनूँ, सिरफ रेडियो पास है
पेट और रेडियो ने मिल रामायण, महाभारत को हमसे दूर कर दिए
अखबारों ने दगा दिए, तो नागार्जुन जैसों ने अकाल बाद रच दिए !
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अब तो हमारे पास देने को सचमुच में कुछ नहीं बचे हैं
लेने को मन करता है, पर स्वाभिमान धमका रहे हमें पल-पल
सरकार सिरफ कामातुर स्त्री की भाँति है, जो फँसाना जानती है
तो एक स्लेट-खड़िया दे दो कि स्वयं भाग्य लिखूँ औ’ मिटाते जाऊँ!
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