स्वप्न श्रृंगार
स्वप्न श्रृंगार
स्वप्न श्रृंगार नारी बन
,आती मेरे पास।
अर्द्ध रात्रि में सजी धजी
कहती हैं निज काम।।
निद्रा बेला था भयंकर,
स्वप्न शील था रात।
कानों में कह रही थी,
धीमी-धीमी बात।।
तुम्हें लेने मै आई,
चल मेरे संग साथ।
छोड़ यहां मोह माया,
पकड़ लीजिए हाथ।।
लिखी नसीब न मिट पाय,
देख लीजिए भाल।
चिन्तन मनन बंद कर,
चुंबन लो मम गाल।
नार बनकर मैं तुमसे
पूर्ण करूंगी आस
करूं वासना पूर्ण तय
बुझा दूंगी प्यास।।
खोल नयन विजय देखा
निसी बेला था मौन,।
चिंतन मनन कीजिएगा,
स्वप्न सत्य था। कौन।।
सोलह श्रृंगार कर नार
आती मेरे पास
झकझोर रखी हृदय मम
लेकर अपनी आस।।
काल कलिका खड़ी रही
दात रही विकराल
स्वप्न श्रृंगार नारी बन
लुभा रही थी काल।।
डां, विजय कुमार कन्नौजे अमोदी आरंग ज़िला रायपुर छत्तीसगढ़
स्वप्न श्रृंगार नारी सा
लुभा रही थी काल।।