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24 Sep 2023 · 6 min read

गुरु दीक्षा

गौतम और पूनम एक ही कक्षा में पढ़ते थे | दोनों साथ ही बैठते थे। उनकी मित्रता भी अभिन्न थी। गौतम पढ़ाई में तेज़ होने के साथ साथ स्वभाव से सीधा, सरल और भोला – भाला था । उसकी घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी | उसके पिता बड़े कठिनाई से आधा पेट काटकर उसे पढ़ा रहे थे | इस कारण गौतम भी मेहनत से अध्ययन कार्य करता था | वही दूसरी तरफ पूनम के पिताजी गाँव के सरपंच थे | पूनम का मन पढाई से ज्यादा खेल एवं क्रीड़ा में ज्यादा लगता था | इसलिए वे दोनों शिक्षकों के आँखों के तारे थे।
एक दिन मध्यान्ह भोजन की छुट्टी में गौतम भोजन समाप्त करने के पश्चात् अकेले बैठकर कुछ सोच रहा था | अचानक पीछे से पूनम उल्लासित होकर कहने लगा कि “अरे !! गौतम, सुन मेरे पास परीक्षा में उत्तम अंक लाने का बहुत अच्छा उपाय है |
“क्या उपाय है ऐसा भाई पूनम ?”
“बहुत ही अचूक उपाय है | ये देखो मेरे हाथ में ये प्रसिद्ध संत श्री श्री 1008 माधव प्रसाद महाराज की संस्था द्वारा प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका की सदस्यता की रसीद बुक है | इसमें बहुत अच्छी अच्छी बाते लिखी होती है जो हमें परीक्षा में अच्छे अंको से पास होने में बहुत उपयोगी सिद्ध होगी” |
अच्छा ऐसा है क्या !! इससे तो मुझे पढना ही नही पढ़ेगा और अच्छे अंको से उत्तीर्ण भी हो जाऊंगा गौतम ने मन ही मन सोचा |
“इसमें सदस्यता लेने के लिए क्या करना पड़ेगा भाई पूनम ?”
“बहुत आसान है, कुछ नही करना पड़ेगा सिर्फ इसकी अनिवार्य सदस्यता शुल्क तीन सौ रूपये मात्र है जिसका भुगतान करने के पश्चात् ही तुम इससे जुड़ सकते हो और हर माह नियमित रूप से एक वर्ष तक तेरे घर में मासिक पत्रिका आएगी | तू कल तेरे पापा से तीन सौ रूपये लेकर इसमें पंजीयत(रजिस्टर) हो सकता है |”
अब गौतम के सामने समस्या ये थी कि क्या उसके पिताजी इतनी राशी देने के लिए राजी हो जाएँगे?
शाम को गौतम के पिताजी जब मजदूरी करके घर आये तो गौतम ने अपने पिताजी के सामने इस प्रस्ताव को रख दिया | सुनकर पिताजी सोचने लगे की एक साथ तीन सौ रूपये का इन्तेजाम कैसे करू और वे नही चाहते थे मेरे बेटे के अध्ययन कार्य में कोई बाधा आये | उन्होंने गौतम से कहा कि बेटा चिंता मत कर | कल मैं तुम्हे स्कूल जाते वक्त रूपये दे दूंगा | अभी तुम जाकर थोडा पढाई कर लो |
गौतम और पूनम की कक्षा पांचवी की परीक्षा नजदीक आ रही थी कुछ ही दिन शेष बचे थे | उन्ही दिनों वही संत माधव प्रसाद महाराज की कथा गाँव से लगभग पचास किलोमीटर दूर स्थित शहर में आयोजित होने वाली थी और साथ ही इच्छुक भक्त गुरु दीक्षा भी ले सकते थे |
जानकारी पाकर पूनम गौतम के पास गया और कहा कि –
“सुन गौतम तुझे पता है पास के शहर में संत माधव प्रसाद महाराज जी की सत्संग होने वाली है जिसमें बहुत से लोग सुनने आते हैं और इस के साथ-साथ गुरु दीक्षा का भी लाभ लेते हैं।
“ये गुरु दीक्षा क्या होता है | और हम कैसे प्राप्त कर सकते है और इससे क्या लाभ मिलता है ?”
“जैसे स्कूल में गुरूजी से हमें शिक्षा प्राप्त होती है ठीक वैसे ही सत्संग में संत जी से दीक्षा की प्राप्ति होती है | संत माधव प्रसाद जी हमारे कानो में कुछ गुरु मन्त्र देंगे और उस मन्त्र को नियमित रूप से कब – कब जपना है | वो भी बताएँगे जिसमे अपन पढाई में अच्छे नम्बर लाने के लिए दीक्षा लेंगे | पता है, अपनी कक्षा के सभी लड़के – लड़कियां और मैडम भी जा रही है किराये की जीप से |”
“अच्छा पूनम धन्यवाद यार तूने अच्छा किया मुझे बता दिया | अब मैं मेरे पापा से आज शाम को ही अपने किराये के पैसे और गुरु दीक्षा के लिए बात करता हूँ | ठीक है अब अपन सुबह ही मिलेंगे |
गौतम ख़ुशी से झूमते झूमते घर की ओर निकल पड़ा | घर पहुँचते ही उसने देखा कि उसके माता- पिता दोनों किसी बात को लेकर झगड़ा कर रहे थे | ये दृश्य देखकर गौतम की ख़ुशी धूमिल सी हो गई, उसका मन बैठ गया | अब क्या करता बेचारा पिताजी से कल के सत्संग में जाने के बारे में कैसे बात करता | मन ही मन सोचने लगा कि इस समय बाकि मित्र अपने माता पिता के साथ कल की तैयारी के लिए योजनाए बना रहे होंगे और एकमात्र स्वयं के घर में है कि गृह युद्ध की स्थिति बनी पड़ी है । कल मेरे अलावा सभी मित्र सत्संग सुनने जाएंगे केवल मै अकेला ही रह जाऊँगा… ये सोचकर वह फुट फुटकर रोने लगा।
अगली सुबह ऐसा ही हुआ गौतम के सभी मित्र तैयार होकर गाड़ी की ओर जा रहे थे | सभी के चेहरे पर एक अलग ही खुशी और उन्माद झलक रही थी सभी मित्र प्रसन्न व उत्तेजित लग रहे थे मात्र गौतम का चेहरा मुरझाया हुआ लग रहा था | अपने मित्रों को सामने से जाते देखकर गौतम का मन अंदर ही अंदर कुंठित हुए जा रहा था । वह अकेले घर के कोने में जाकर रोने लगा। सभी मित्र सत्संग के लिए रवाना हो चुके थे । गौतम गाड़ी के पीछे पीछे गाँव के काकड़ तक दौड़ते दौड़ते पीछा किया परन्तु वह वापस घर लौट आया। और स्कूल जाने की तैयारी करने लगा |
आज गौतम ही एक मात्र ऐसा विद्यार्थी था जो कक्षा में उपस्थित था प्रधानाध्यापक जी चकित रह गए और पूछ बैठे “बेटा तुम नहीं गए सत्संग सुनने ?” तब गौतम ने सारा वाकया सुना दिया। इस पर प्रधानाध्यापक जी ने गौतम को समझाते हुए कहा कि
“बेटा कोई बात नही छोटी छोटी बातों के लिए परेशान नही होते। भगवान जो भी करता है अच्छा ही करता है।
“पर गुरुजी मेरे साथ क्या अच्छा हुआ है ? मैं सत्संग सुनने नही जा पाया और सबसे बड़ी बात ये थी कि मुझे गुरु दीक्षा का लाभ नही मिल पाया। बल्कि आज मेरे सभी मित्रों को गुरु दीक्षा मिलने वाली है जिससे वे हर परीक्षा में अव्वल आएंगे । सिर्फ गुरुजी में ही अभागा जो इस अमूल्य गुरु दीक्षा से वंचित रह जाऊंगा ।”
“बेटा असल मे अगर तुम्हें परीक्षा में अव्वल आना हो तो तुम्हारे द्वारा बनाये गए अध्ययन के लिए उचित रणनीति, नियमित अध्ययन, अपने गृहकार्य को ईमानदारी से पूर्ण करना और निरंतर अभ्यास ही अपने आप में सबसे बड़ी दीक्षा है और यही वास्तव में उचित सफलता का मूल मंत्र है । एकलव्य का ही उदाहरण देख लो उन्होने कहाँ किसी गुरु से शिक्षा- दीक्षा प्राप्त की थी। वे तो स्वयं ही एक मूरत के सामने अपने निरंतर अभ्यास और साधना से अर्जुन से भी महान धनुर्धर कहलाये न।
वार्षिक परीक्षा का समय सारिणी आ चूका था | सभी बच्चे परीक्षा की तैयारी करने के बजाय उस संत द्वारा दिए गए गुरु मन्त्र को समय समय पर जपने में और मासिक पत्रिका को पढ़ने में अपना समय बिता रहे थे | और इधर गौतम ने अपनी परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी |
कुछ ही दिनों बाद परीक्षाफल आ गया | सभी बच्चे अपनी परीक्षाफल जानने की उत्सुकता में समय से पहले ही विद्यालय भवन पहुँच गए | प्राचार्य सर परिणाम लेकर आये, सभी बच्चे दिल थाम कर बैठे हुए थे | सभी के मन में सवाल उठ रहा था कि कौन प्रथम आएगा ? क्योकि सभी ने ही अपनी ईमानदारी और कठिन परिश्रम से गुरु मन्त्र का नियमित पठन पाठन किया था | जैसे ही प्राचार्य सर ने प्रथम स्थान पर आने वाले विद्यार्थी का नाम घोषित किया | विद्यालय भवन में सन्नाटा पसर गया | प्रथम स्थान पर गौतम आया था | पुनः भवन में हलचल मच गई बच्चो की करतल ध्वनियो से सारा माहौल खुशनुमा हो गया था | बाकि कक्षा के विद्यार्थी केवल उत्तीर्ण ही हुए थे | अतः गौतम को बुलाकर प्राचार्य महोदय की ओर से पुरुष्कार दिया गया और गौतम को दो शब्द बोलने के लिए भी कहा गया |
“दोस्तों आज में जो प्रथम स्थान पर आया हूँ | इसका पूरा श्रेय आदरणीय प्राचार्य सर को जाता है | जिन्होंने मेरी परिस्थिति को समझते हुए मुझे उचित मार्गदर्शन दिया | अगर मैं आप लोगो के साथ सत्संग सुनने चला जाता और मैं भी गुरु दीक्षा का शिकार हो जाता फिर शायद ही ये सफलता प्राप्त होती | सर ने मुझे बताया कि वास्तव में गुरु दीक्षा वही है जो हमारे शिक्षक हमें कक्षा में जो कुछ भी पढ़ते है | उसे अगर घर जाकर उसका अभ्यास करते हो तो तुम्हे किसी गुरु मंत्र की आवश्यकता नही होगी | अध्ययन के प्रति कठिन परिश्रम, अपनी लगन और पुस्तको की साधना ही असल में सबसे बड़ी “गुरु दीक्षा” है |”

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