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17 Feb 2024 · 1 min read

स्वप्न लोक के खिलौने – दीपक नीलपदम्

फिसल गए हाथ से, स्वप्न-लोक के खिलौने सारे,

ज्यों फ़िसल जाता है

वर्षा-जल पड़कर रेत पर।

व्यर्थ उभरकर रह गईं

भावनायें कोमल सारी,

होती है व्यर्थ मेहनत,

किसान की जैसे, सूखे बंजर खेत पर।

आस का पुष्प

खिलने को जिस पल हुआ,

मुरझाया उसी पल आखिर,

पलता वो कैसे नैराश्य की ओस पर।

भ्रम ही सही, है ये तो,

बना रहने दो,

एक छवि सलोनी देखूँ,

मैं मन मसोस कर।

फिसल गए हाथ से, स्वप्न-लोक के खिलौने सारे।

(c) @ दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”

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