स्वप्न अखण्ड भारत
अखंड भारत
हो विलक्षण वेदनाएं द्वार मन का तोड़ती तब….
यह विसंगत चक्र इक चारण हृदय को जोड़ता है।
और कवि मन ध्वंस के इस आवरण पर क्या कहेगा…
वो स्वयं को पा विवश कुछ पृष्ठ को बस मोड़ता है।
राष्ट्र की संवेदनाएं जब बिगड़ती जा रही हो।
भ्रष्टता के आड़ में नीति अखड़ती जा रही हो।
धृष्टता हद तोड़कर जब वक्ष ताने बोलती है।
तब सरस निर्मल नदी गंगा स्वयं में खौलती है।
जो परम पावन सृजन की केंद्र थी यह उर्वरा भू।
जो पियासु थी हिमालय गर्भ से निकले जलों की।
अब तो धूमिल राष्ट्र की नैतिक पवन चुभती रही है।
राम कृष्णा की ये भूमि गौ की शोणित पी रही है।
ज्ञात है मुझको विधानों से भरी कुछ पुस्तकें हैं।
वाम पंथी नीतियों की जिसमें लाखों दस्तकें हैं।
धर्म को पाखंड की उपमाएं जिसमें गढ़ रहे हैं।
और सनातन पंथी मुरख आज जिसको पढ़ रहे हैं।
जिन विधानों में नहीं हो भुखमरी का हल कोई भी।
आपदा के काल में संवेदना वो क्या जगाए?
जिन विधानों ने यहां पर मान्य कर दी जीव हत्या।
है यही नैतिक कि उन नीतियों को अब हटाए।
कौन है दूषण से पोषित प्रश्न विचलित कर रहा है।
हरेक अक्षर आज कविता में ही आकर मर रहा है।
एक था दुष्चक्र हां वो काल आताताइयों का।
सूर्य को ढकने से उल्लू का वृतित परछाइयों का।
उस काल में यह धर्म ध्वज गिरती रही थी मानता हूं।
था शिखा संताप तिलक मिटती रही थी मानता हूं।
किंतु अब इस काल में भारत चुना नव अश्व को।
और फिर नव पाठ वो देता रहा है विश्व को।
सिंह को तुमने थमाया है यहां सिहांसनें।
किंतु कैसा दौर है ये भाषणों पर भाषणें।
क्यों नहीं ललकारता है सिंह कृंदन छोड़कर।
दंड क्यों ना दे रहा है धृष्ट वंदन छोड़कर।
ऐंठते सिहांसनों पर जो हैं भगवा ओढ़कर।
गौ का आसूं दिखाओ भगवा ध्वज से पोंछकर।
तब तो मानूं तुम सनातन पंथ के उत्कर्ष हो।
काल ध्वंशक योग में लाए महकते हर्ष हो।
ऐंठ कर करते थे हिंदू राष्ट्र की उद्घोषणा।
फिर शिखाएं क्षत विक्षत क्यों हो रही है देश में।
बंद है क्यों पाठशाला वेद के सम ज्ञान का।
क्या पढ़े हो सच बताओ शास्त्र के उपदेश में?
नीतियों के बल पे भारत विश्व का प्रतिमान था।
हिंदू हिंदू राष्ट्र के प्राचीर का अभिमान था।
सिंध को मैं मानचित्रों में कभी न ढूंढ पाया।
शर्म है तो राष्ट्रगां से सिंध को क्यों न हटाया?
द्रोह की भाषा है किंतु राष्ट्र हित आसक्त हूं।
प्रश्न से विचलित हूं क्योंकि राष्ट्र का मैं भक्त हूं।
मैंने पाया जन्म भारत के पवित भू भाग पर।
कृष्ण भी ठुमके जहां थे गंगा जी के राग पर।
यह कविता पूर्ण होगी सत्य के संग्राम में।
जब मिलेगा पूर्ण भारत ही मुझे इनाम में।
बंद कर लोचन मधुर संगीत तब गाऊंगा मैं।।
मान सरोवर जब हृदय के ताल पर पाऊंगा मैं।
दीपक झा “रुद्रा”