स्वप्निल ऊंचाइयाँ…
तेरे मेरे बीच, ये क्या चलता है
कोई रिश्ता, बिना संबोधन ही पलता है…
परायों की तरह, जीते रहे सालों
फिर भी अजनबी, मेरे साथ- साथ चलता है…
कुछ स्वप्निल ऊंचाइयाँ, छूनी है हमें
देखते हैं दोनों में से, कौन आगे निकलता है…
बुनती रही सपनों को, आस की डोर से
बुनते- बुनते हक़ीक़त से, हर सिरा उलझता है…
क्या करना है मेरे हासिल का, हिसाब करके
ये दिल तो रोज़, उस सौदागर के हाथों बिकता है…
– ✍️ देवश्री पारीक ‘अर्पिता’
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