स्वदेश धर्म
: घनघोर सनातन धर्मी हूँ ,
लेकिन मुझमें अन्धत्व नहीं।।
पंथी बन परचम फहराऊं ,
ऐसा कोई बंधत्व नही।।
पूरी धरती में भारत की ,
तेवर सूरज का दिखता है।।
गंगा जमुना का शुद्ध नीर,
कान्हा,करीम पी सकता है।।
गंगा से लेकर झेलम तक ,
देशीय चेतना से भर दो।।
जिनकी भाषा बारुद भरी ,
उनके धड़ मुंड अलग कर दो।।
अपनी धरती का कर्ज भूल,
जो छुट्टा छइयाँ घूम रहे ।।
हैंप्रान्त,पंथ की खुशबू में,
वे काल कूट विष ढूंढ रहे।।
इनको क्या कहूं सनातन हैं,
या देश प्रेम से भरे हुए?,।।
खुद की उंगली नाखून नहीं,
लेकिन खुजली को हैं अड़े हुए।।
सारी वसुधा परिवार रही,
या केवल चार शिखा धारी।।
इतने संकुचित नहीं थे हम,
क्या घृणा पडी़ सब पर भारी।।
अपनी धरती से स्वामिभक्ति,
है सब धर्मों का मूल मंत्र।।
जिसने भूली यह शपथ कभी,
उसका निश्चित हो छिन्न तंत्र।।
राधा शुक्ला, लखनऊ