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29 Jan 2024 · 1 min read

स्वतंत्रता का अनजाना स्वाद

सदियों से….
तुम्हारी सोच के
पाषाण से
जकड़ी थी ,

और….
उसमें जकड़ना
मेरी आदत सी
बन गई थी ,

अब….
टूटी है मेरी तंद्रा
जो कुंभकरण सी
हो गई थी ,

अपना….
सब कुछ
यहाॅं तक की
नाम भी भूल गई थी ,

लेकिन….
अब जागी हूॅं
चैतन्य हो
पूर्ण रूप से ,

मैने….
चुन ली है
अपनी
जिजीविषा ,

कोई नही….
मुझ पर थोपेगा
खुद का
विचार/अधिकार ,

आखिरकार….
मैं भी चखूंगीं
स्वतंत्रता का
अनजाना स्वाद ,

ना जाने….
कहां से
भर गई है मुझमें
अपार शक्ति ,

अब मैं….
अपनी शक्ति से
पल में चूर – चूर
कर दूंगी शिला ,

जानती हूॅं….
नही हूॅं मैं
सतयुग की
अहिल्या ,

मैं हूॅं….
कलियुगी शक्ति
स्वाभिमान से भरी
नही हूॅं नारी आम ,

क्योंकि….
जानती हूॅं नहीं आयेंगें
इस युग मे मुक्त करने
मुझे प्रभु श्री राम।

स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )

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