स्वतंत्रता का अनजाना स्वाद
सदियों से….
तुम्हारी सोच के
पाषाण से
जकड़ी थी ,
और….
उसमें जकड़ना
मेरी आदत सी
बन गई थी ,
अब….
टूटी है मेरी तंद्रा
जो कुंभकरण सी
हो गई थी ,
अपना….
सब कुछ
यहाॅं तक की
नाम भी भूल गई थी ,
लेकिन….
अब जागी हूॅं
चैतन्य हो
पूर्ण रूप से ,
मैने….
चुन ली है
अपनी
जिजीविषा ,
कोई नही….
मुझ पर थोपेगा
खुद का
विचार/अधिकार ,
आखिरकार….
मैं भी चखूंगीं
स्वतंत्रता का
अनजाना स्वाद ,
ना जाने….
कहां से
भर गई है मुझमें
अपार शक्ति ,
अब मैं….
अपनी शक्ति से
पल में चूर – चूर
कर दूंगी शिला ,
जानती हूॅं….
नही हूॅं मैं
सतयुग की
अहिल्या ,
मैं हूॅं….
कलियुगी शक्ति
स्वाभिमान से भरी
नही हूॅं नारी आम ,
क्योंकि….
जानती हूॅं नहीं आयेंगें
इस युग मे मुक्त करने
मुझे प्रभु श्री राम।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )