स्मृति : पंडित प्रकाश चंद्र जी
स्मृति : पंडित प्रकाश चंद्र जी
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पंडित जी मुंडी लिपि के मर्मज्ञ थे। प्रवाह में बहीखातों का काम मुंडी लिपि में करते थे। उनकी लेखनी खूब तेज चलती थी। मैंने मुंडी लिपि में नाम लिखना उनसे ही सीखा था।
ज्योतिष मैंने पंडित प्रकाश चंद्र जी से सीखी थी । पंडित जी ज्योतिषी के रूप में विख्यात तो नहीं थे लेकिन ज्योतिष के संबंध में उनका अच्छा ज्ञान था। जन्मपत्री पर उनका अध्ययन गहरा था । उन्होंने मुझे जन्मपत्री देखना सिखाया ।
अक्सर मेरी उनसे एकांत में बीस-पच्चीस मिनट बातचीत हो जाती थी । फिर क्रम जहॉं से समाप्त होता था ,जब अगली मुलाकात हुई तो वहीं से बात फिर शुरू हो जाती थी। इस तरह मेरी रुचि को देखते हुए मैं जितना पूछता था, वह मुझे उत्साह पूर्वक बताते थे ।
जन्मपत्री में मैंने इस बात में विशेष रुचि ली कि विवाह किस आयु में होगा ? पंडित जी को इस बात का ज्ञान था कि जन्मपत्री देखकर विवाह का वर्ष और माह दोनों ही जाने जा सकते हैं। उन्होंने मुझे यह सब बातें खूब अच्छी तरह से सिखा भी दी थीं और मुझे उस समय जन्मपत्री देखकर विवाह कब होगा इसका ज्ञान इतना ज्यादा होने लगा था कि मैंने एक जगह जाकर तो शौकिया तौर पर उनके घर में जन्मपत्री देखकर विवाह का वर्ष भी बताया । इसके अलावा जो जन्मपत्रियाँ मुझे उस समय उपलब्ध हुईं , मैं उन्हें देख कर यही पता करता था कि जन्मपत्री के हिसाब से इस व्यक्ति का विवाह कब होना चाहिए । आश्चर्य की बात यह है कि जो फार्मूला पंडित प्रकाश चंद्र जी ने बताया था , वह बिल्कुल सही था।
पंडित जी ने चेहरे को देख कर व्यक्ति के स्वभाव के संबंध में भी कुछ बातें बताई थीं। सम और विषम लग्न का अनुमान चेहरा देखकर किया जा सकता है । मुख्य जोर उनका नाक की आकृति पर रहता था। इससे व्यक्ति के स्वभाव को समझा जाता था।
पंडित जी की मृत्यु शायद 1984 में हुई थी। तब मैं चौबीस वर्ष का था तथा पंडित जी की आयु लगभग पिचहत्तर वर्ष रही होगी । उनका व्यक्तित्व बहुत गरिमामय था । विचारों में और स्वभाव में गंभीरता थी। वह भारतीय संस्कृति के उपासक थे। उनके सफेद बाल केवल उनके आयुवृद्ध होने की घोषणा ही नहीं करते थे, वह उनके विचारवृद्ध होने का या कहिए कि विचारक होने का भी आभास कराते थे ।
ज्योतिष के बारे में पंडित जी ने काफी ज्ञान प्राप्त किया था। उनका नेपाल में भी रहना हुआ था और वहां उन्होंने एक ज्योतिषी के पास ऐसी पुस्तक को देखा था, जिसमें हाथ की चार उंगलियों के बारह पोरों को पढ़ कर भविष्य बताया जा सकता था। वह उस पुस्तक को आश्चर्य में भर कर पढ़ने लगे थे और थोड़ा-सा ही पढ़ा था कि उस ज्योतिषी ने एकाएक उनकी तरफ देखा और तुरंत पुस्तक खींच ली।
मुझे बड़ा आश्चर्य होता था कि ज्योतिष में इतने गहरे रहस्य कैसे हैं । बड़े आश्चर्य की बात है कि एक व्यक्ति के जन्म के समय आकाश में ग्रहों की स्थिति का इतना ज्यादा प्रभाव होता है कि हम ग्रहों की स्थिति को जानकर ही यह बता सकते हैं कि उस व्यक्ति का भविष्य का जीवन किस प्रकार से बीतेगा। इसका अभिप्राय यह भी हुआ कि सब कुछ भाग्य ने पहले से तय करके रखा हुआ है । तभी तो ज्योतिष काम करेगी। ज्योतिष का एक अर्थ यह भी है कि प्राचीन भारत के विद्वानों ने आकाश की स्थिति के बारे में इतना अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान कर रखा था कि वह ग्रहों के बारे में इतना तक जान गए थे कि ग्रहों का पृथ्वी पर क्या प्रभाव पड़ता है।
पंडित प्रकाश चंद्र जी के माध्यम से ही मुझे भारतीय संस्कृति के विविध आयामों के संबंध में रुचि जागृत हुई। विभिन्न त्योहारों का शास्त्रीय पक्ष, हिंदी महीने के हिसाब से साल के बारह महीने, चंद्रमा का उतार-चढ़ाव, प्रकृति के साथ किस प्रकार से भारत की प्राचीन परंपरा में महीनों और त्योहारों का निर्धारण होता है – यह सब पंडित प्रकाश चंद्र जी की और मेरी चर्चा का विषय रहते थे।
पंडित जी को हिंदी में भी अच्छी रुचि थी। वह हिंदी के विद्वान थे। उस समय उन्होंने मुझे किसी कवि की अनुप्रास अलंकार की एक कविता सुनाई थी जिसमें “च” शब्द का प्रयोग बार – बार होता था। :-
“चंपक चमेलिन सों चमन चमत्कार चम चंचरीक के चितौत चौरे चित हैं”
कविता का प्रवाह देखते ही बनता था। मैंने उसे याद कर लिया था और उसका कुछ अंश तो मुझे अभी तक याद है। लेकिन फिर भी मैंने उनसे कहा कि आप इस कविता को मुझे लिखकर दे दीजिए ,यह बहुत अच्छी है। तब उन्होंने मुझे वह कविता एक कागज पर लिख कर दे दी। इतने वर्षों तक वह कागज मेरे पास सुरक्षित रहा ।
पंडित प्रकाश चंद्र जी रामपुर में तिलक नगर कॉलोनी के निवासी थे । वह अपने भाई के संबंध में गर्व पूर्वक चर्चा करते थे। उनके बड़े भाई पंडित कैलाश चंद्र जी संगीत की दुनिया में आचार्य बृहस्पति के नाम से विख्यात हुए ।आचार्य बृहस्पति ने 1965 से 1977 तक दिल्ली में आकाशवाणी के मुख्य परामर्शदाता के पद पर कार्य किया था। आचार्य बृहस्पति संगीत के प्रैक्टिकल और थ्योरी दोनों क्षेत्रों में समान अधिकार रखते थे ।उन्होंने भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के 28 वें अध्याय पर गहन अध्ययन किया था और इस संबंध में उनके अध्ययन ने संगीत जगत में एक हलचल पैदा कर दी थी। 1957 में मुंबई में एक सभा में आचार्य बृहस्पति ने न केवल भरतमुनि के ग्रंथ के आधार पर संगीत के कतिपय सिद्धांतों को प्रस्तुत किया बल्कि स्वयं अपनी बनाई हुई “बृहस्पति वीणा” के माध्यम से प्रैक्टिकल रूप से सिद्धांत को प्रयोग के धरातल पर भी सामने रखा । प्रकाश चंद्र जी को अपने बड़े भाई की सफलता से बहुत प्रसन्नता होती थी। वह बताते थे कि आरंभ में संगीत के क्षेत्र में आचार्य बृहस्पति के शौक को देखते हुए उन्होंने भी इस दिशा में आगे बढ़ने में उनका साथ दिया था । वह प्रसन्न होते थे।आखिर क्यों न होते ! बाल्यावस्था में ही पंडित प्रकाश चंद्र जी के पिता पंडित गोविंद राम जी का निधन हो चुका था।
संक्षेप में यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे पंडित प्रकाश चंद्र जी जैसे विद्वान व्यक्ति के निकट संपर्क का लाभ प्राप्त हुआ और उनसे मैंने हिंदी, ज्योतिष तथा धर्म और संस्कृति के विविध पक्षों का गहराई से ज्ञान प्राप्त किया । उनकी पावन स्मृति को मेरे अनंत प्रणाम ।
संलग्न पंडित प्रकाश चंद्र जी की हस्तलिपि में अलंकारिक भाषा में अद्भुत कवित्त तथा फेस रीडिंग(चेहरा पढ़ना) की दृष्टि से उनके नोट्स का एक प्रष्ठ ।।