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8 Jan 2022 · 4 min read

स्मृति : गीतकार श्री किशन सरोज

स्मृति : गीतकार श्री किशन सरोज
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर( उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 5451
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8 जनवरी 2020 को श्री किशन सरोज का निधन हो गया । आप हिंदी के अत्यंत लोकप्रिय गीतकारों में हैं। आप के गीत , प्रेम गीत हैं और उसमें वियोग का पक्ष बहुत प्रबलता के साथ प्रस्तुत किया जाता है।
बरेली निवासी श्री किशन सरोज का काव्य- पाठ सुनने का मुझे अवसर कई दशक पहले जैन इंटर कॉलेज, रामपुर में आयोजित एक कवि सम्मेलन में मिला । किशन सरोज जी के गीत जितने सुंदर थे, उतना ही सुंदर काव्य पाठ का उनका अंदाज था। भावों में डूब कर वह गीत सुनाते थे और श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। उसी समारोह में मंच पर नवाब मुर्तजा अली खाँ की पत्नी श्रीमती सकीना बेगम भी विराजमान थीं। किशन सरोज जी ने अपने काव्य पाठ से धूम मचा दी थी ।
वर्ष 2011 में निर्झरिणी अनियतकालीन पत्रिका का एक अंक श्री किशन सरोज पर केंद्रित निकला। यह बरेली निवासी गीतकार श्री हरिशंकर सक्सेना का प्रयास था। मैंने पत्रिका को पढ़कर एक लेख लिखा, जो उस समय 23 मई 2011_सहकारी युग_ (हिंदी साप्ताहिक ,रामपुर) में प्रकाशित हुआ । इस तरह मेरा श्री किशन सरोज से यह संपर्क आया।
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निर्झरणी का किशन सरोज अंक(समीक्षक:रवि प्रकाश)
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गीतकार हरिशंकर सक्सेना ने हिन्दी साहित्य की जो सेवा की है, निर्झरणी का प्रकाशन एवं सम्पादन उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसलिए पत्रिका के प्रख्यात गीतकार किशन सरोज पर केन्द्रित अंक 11 जो कि मार्च 2011 को प्रकाशित हुआ है, पर उनको हृदय से बधाई देना उचित ही रहेगा। अव्यवसायिक दृष्टिकोण से पत्र-पत्रिका निकालना एक कठिन कार्य है, निर्झरणी को देखकर यह और भी सटीक सिद्ध हो रहा है। इस दृष्टिकोण से निर्झरणी का 14 वर्ष का वनवास समाप्त होकर पुनः प्रकाशित होना केवल निर्झरणी ही नहीं, समूची हिन्दी साहित्यिक बिरादरी के लिए परम आह्लाद का अवसर है।
64 पृष्ठ के इस अंक में प्रसिद्ध गीतकार किशन सरोज के 18 गीत संकलित किए गए हैं। इसमें कवि का तथ्यात्मक परिचय है, आत्म निवेदन है तथा गीतकार के सृजन की विशिष्टताओं को रेखांकित करते समीक्षकों के मनोहारी लेख हैं जो हरिशंकर सक्सेना, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, माहेश्वर तिवारी, डा० कीर्ति काले, डा० उपेन्द्र, कृष्ण कुमार नाज तथा रमेश गौतम के लिखे हैं।
किशन सरोज का काव्यपाठ जिन्होंने सुना होगा, वह इस बात की पुष्टि करेंगे कि यह गीतकार केवल गीत लिखता नहीं है, उन्हें गाता भर नहीं है ,यह उन गीतों को जीता है। ये गीत उसकी साँसों का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। वह अपने हृदय की गहराइयों में उन्हें केवल अपने लिए स्वान्तः सुखाय-गाता है। यह गायन इसलिए तानसेन का नहीं, संत हरिदास का गायन बन जाता है और श्रोता इसे सुनकर भीतर गहरे तक पवित्र हो जाता है। वियोग के गीतों का कवि यदि अपनी काव्य कला से श्रोताओं को आसुँओं में भिगो दे, तो इससे ज्यादा उसकी कला की श्रेष्ठता का प्रमाण और क्या होगा! आँसू इस संसार में सबसे कीमती चीज हैं, जो मनुष्य कभी-कभी ही किसी को देता है।
समीक्षक कृष्ण कुमार नाज ने एक श्रोता के रूप में अपने आप पर हुए असर का वर्णन इन शब्दों में किया है “(किशन सरोज का काव्य पाठ सुनकर) मैं भी श्रोताओं के मध्य बैठा आँखों की कोरों को कभी रुमाल से और कभी आस्तीन से साफ करता हुआ सुबक रहा था। जी चाह रहा था कि यह मस्त समर्पित प्रेमी काव्य पाठ करता रहे और मैं उसके शब्दों में अपनी सच्चाइयाँ तलाशता रहूँ।” (पृष्ठ 31)
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि किशन सरोज के सभी गीत उदासी के गीत हैं। इन सभी गीतों में गहरी तड़प है, बिछुड़ने का दर्द है और प्रिय की मधुर स्मृति की पीड़ा है। आश्चर्य है कि इसके अलावा उन्होंने और कुछ लिखा ही नहीं है। पर, इसमें यह तो निश्चित हो जाता है कि इन गीतों की रचना शौकिया या सिर्फ लिखने भर के लिए नहीं हुई होगी। निश्चय ही किसी ने बलपूर्वक कवि से यह गीत लिखवाये होंगे, अर्थात यह बेहोशी या अर्ध-होशी की रचनायें हैं। इन सब में प्रिय को खोने की पीड़ा है, न मिल पाने का दर्द है। एक विशेषता है-यह कि कहीं भी प्रिय को छीनने का भाव नहीं है, उसे पाने के लिए कहीं हिंसक प्रवृत्ति नजर नहीं आ रही है।
बहुत बारीक विश्लेषण करते हुए मैं कहना चाहूँगा कि किशन सरोज का गीतकार “साक्षी भाव” से प्रिय के इस वियोग को देख रहा है, उस वियोग की पीड़ा को देख रहा है। केवल देख भर रहा है। कहीं भी उसमें अपने अलगपन को खोने नहीं देता। इसलिए यह अतृप्त कामना भी कामना न रहकर उपासना बन जाती है। ये गीत आध्यात्मिक कोटि के गीतों की श्रेणी में आ जाते हैं। प्रेम उच्च और उदात्त स्तर का स्पर्श पाकर परमप्रेम में बदल जाता है। यहाँ आकर प्रेमिका कोई देह नहीं रहती। वह निराकार हो जाती है। इस निराकार को पाने का यत्न, कामना और न पाने पर रो-रो पड़ना- यह आध्यात्मिकता नहीं तो और क्या है? जरा गौर तो कीजिए! यह निराकार प्रेम कहाँ, किस गीत में नहीं है?:-
दूर तक फैला नदी का पाट नावें थक गईं /
फिर लगा प्यासे हिरन को बान/
धार बदल दूर हट गई नदियाँ /
नींद सुख की /
अनसुने अध्याय हम आदि-आदि।
प्रेम बहुत पवित्र वस्तु है। यही मनुष्य को भक्त बनाती है। यही ईश्वर से मिलाती है। सांसारिक प्रेम जिसके भीतर नहीं है, वह ईश्वर से भला क्या प्रेम करेगा? इसलिए प्रेम का जिंदा रहना जरूरी है। प्रेम वासना नहीं है। प्रेम प्राप्ति नहीं है। प्रेम त्याग है, प्रेम बलिदान है, प्रेम स्वार्थों का विसर्जन है। जहाँ कुछ कामना नहीं रहती, वहाँ प्रेम सुगन्ध बनकर फैल जाता है। किशन सरोज के गीत प्रेम की निष्काम गंध को बिखेरते मनुष्य के भीतर की संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाले अद्भुत तीर्थ हैं। सच्चे प्रेमी इन गीतों को पढ़कर और सुनकर इनकी गहराई में गोता लगाएंगे और आसुँओं से भीगकर लैला मजनूँ, शीरी फरहाद और “चैतन्य महाप्रभु की आत्मविस्मृति” (पृष्ठ 6) में पहुँच जाएंगे।

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