‘स्मृतियों की ओट से’
जब मेरी सबसे ‘पुरानी’ और ‘पहली’ सखी ‘भावना’ ने (कक्षा ग्यारहवीं से मित्रता थी) मैसेज किया, “आजकल कहां गुम हो रश्मि?” तो मन छ्लछला उठा। 50 वर्ष की उम्र में ऐंजियोग्राफी के बाद की असहनीय कमजोरी एक पल में फुर्र हो गई। फटाक से रिप्लाई भेजा-“दिल भर गया है प्रिय भावना, हल्का कर रहे हैं…” मैसेज भेजते-भेजते अतीत के किवाड़ें धीरे-धीरे खुलने लगे …1988 में महिला कालेज, लखनऊ का प्रांगण, शिक्षिकाओं का स्नेहिल व्यक्तित्व, बच्चों की तल्लीनता तथा मनोविज्ञान की शिक्षिका का ध्यान आ गया। ‘अस्थाना मिस’ धीर-गंभीर, ज्ञान और सादगी से परिपूर्ण थीं। ‘अस्थाना मेमोरियल हाल’, इलाहाबाद मनोविज्ञान शाला ” द्वारा दिया जाने वाला ‘गोल्ड मेडल’ वो चाहती थीं उस वर्ष उनकी किसी छात्रा को मिले। उन्होंने कक्षा में एनाउंस किया। सुनते ही मैंने मन ही मन दृढ निश्चय कर लिया कि मैं लेकर रहूंगी ये मैडेल, पर उनसे चर्चा नहीं की। उनका बहुत सख्त शासन रहता था कक्षा में। जब इण्टर के हाफ इयरली इग्जाम में मेरे नम्बर अच्छे आये तो उनकी वाणी थोड़ी कोमल हुई । बहुत प्यार से उन्होने कहा ”रश्मि, मेहनत करनी पड़ेगी, पर तुम नम्बर ला सकती हो” मेरा भोला मन चलते-फिरते सपने देखने लगा। अहा !गोल्ड मेडल। मेरे मोहल्ले (हाता दुर्गा प्रसाद) में सौभाग्य से डा. गिरिजा दयाल श्रीवास्तव जी का भी घर था, जिनको हम सब ‘गिरिजा चच्चा’ कहते थे। बहुत प्रसिद्ध होम्योपैथिक के डाक्टर थे। हम लोगों का भी थोड़ा-बहुत आना-जाना था, उनकी पोती “रूपम दीदी’ पढ़ाई में अव्वल थीं, डरते–डरते उनसे गोल्ड मेडल की चर्चा कर डाली। वो स्वभाव से बहुत रिर्जव थीं। मेरी बात सुनकर वो बहुत खुश हुईं। उनकी हौसला आफजाई ने बहुत रंग दिखाया। उन्होने नोट्स बनाने का सही ढंग सिखाया। कम समय में ज्यादा लिखना तथा कई किताबों से पढ़ कर फिर अपने भावों से उत्तर लिखने का जो तरीका उन्होंने बताया, उससे मेरी पढ़ाई करने की क्षमता चौगुनी हो गयी। सोने पे सुहागा तब हुआ जब मम्मी ने लाइब्रेरी से पुस्तकें उपलब्ध करा दी। मम्मी हमेशा कहती थीं कि “रिंकी (मेरा घरेलू नाम) जो ठान लेगी वो कर लेगी”। मेरे मन में पढ़ाई की ऐसी लगन लगी कि मैं किताबों में डूब कर इम्तिहान की तैयारी करने लगी। लिखने बैठती तो खाना-पीना ही भूल जाती थी। बहुत मेहनत की इण्टर में । शिक्षिकाओं का भरपूर सहयोग मिला। साथ की दोस्तों ने भी खूब साथ दिया। विशेष साथ दिया ‘भावना’ ने, दोस्ती भी गहराई और पढ़ाई भी। बहुत अच्छे पेपर हुए, मनोविज्ञान का पेपर तो बहुत ही अच्छा हुआ। रिजल्ट आने तक उथल-पुथल मची रही..पर आशा के विपरीत रिज़ल्ट आया। मैं स्तब्ध! द्वितीय श्रेणी ? अनेक दोस्तों को प्रथम श्रेणी भी मिली थी। मुझे अब तक हर प्रश्नपत्र के जवाब याद थे। फिर ये क्या हुआ? मुझे ऐसा सदमा लगा कि क्या कहें, रो-रोकर आंखे सूज गईं। रिश्तेदार, मोहल्ले वाले सब बुलवा-बुलवा कर हार गये, मौन ऐसा साधा कि मम्मी परेशान हो गयीं, कहीं बिटिया आत्महत्या न कर ले (पापा बचपन में ही गुजर चुके थे)। उदासी में चार दिन बीत गये। पाॅंचवें दिन स्कूल से सूचना आई -”रश्मि को गोल्ड मेडल मिला है साइको में!” क्या? गोल्ड मेडल? पूरे खानदान में तब तक किसी को नहीं मिला था। उस जमाने में बड़ी बात होती थी। रोते-रोते अचानक हँसने का वो पल अविस्मरणीय हो गया। मुझसे ज्यादा मम्मी खुश। उनका रामायण की चौपाई ‘गुरू गृह गयो पढ़न रघुराई, अल्पकाल विद्या सब आई’ पढ़वाना स्वारथ हो गया। “हमें पता था रिंकी गोल्ड मेडल जरूर लाएगी” कहते-कहते उन्होंने चिपका लिया। मैं इतना रोई, इतना रोई कि लगा बस सारे सपने पूरे हो गये। वो उम्र भी कमाल की होती है। हर वक्त पलकों पर सपनों की भीड़ रहती थी। जिस दिन मेडल लेने जा रहे थे उस दिन स्कूल बहुत दूर लगा, जबकि रिक्शे से जा रहे थे, रोज तो पैदल लेफ़्ट राइट करते थे, पर उस दिन मम्मी ने अलग से कहा था, “रिक्शे से आना-जाना”, सो थोड़ी वी.आइ.पी. फीलिंग आ रही थी। रास्ते की हर दुकान सजी-सजी सी लग रही थी। “भैया जल्दी जल्दी चलाइये रिक्शा” कहते हुए मैं मुस्करा सी रही थी। उससे ज्यादा खुशी तब हुई जब अस्थाना मिस ने स्टाफ रूम में, कई शिक्षिकाओं के समक्ष मेरे गले में गोल्ड मेडल डाला। लगा उनके आशीर्वाद की लड़िया अन्तर्मन को प्रेरणा से भर गई। जीवन की दुरूहता से अनभिज्ञ मेरा किशोर मन साइको से पी एच डी करने का दृढ़ संकल्प कर बैठा था, जो कि पूरा न हो पाया। मैं सबकुछ याद करते करते एक अजीब सी खुशी में खो गई थी। उम्र के इस दौर में भी वो पहली सफलता की मिठास जब-तब मुंह मीठा करा जाती है।
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ उत्तर प्रदेश