स्नेह-समर्पण
अहाँकेँ आँखि सोझा देखि
आ कि होइते परोछ
फूलाए लगैत अछि
हमर हियाक सागरमे स्नेहक सुगन्धसँ
मह-महाइत
स्नेहक फूल ।
नहि अछि कोनो पैघसन बात
अहाँ सङ्ग हिया लगाएब
लगा सकैत छी
बान्हि सकैत छी
अहाँ सङ्ग स्नेहक बन्हन
आ निमाहऽ सकैत छी
अन्तिम साँसधरि ।
एहि २१म शताब्दीक
बहैत विषम बसातमे
स्नेह कहाँ रहलैए स्नेह ?
घोँटि गेलै निठ्ठूरता
आ स्नेहक विश्वासकेँ
देहक लोभ ।
भरोसा तँ
बनि गेलै चुनौती
चाइनिज समानसन
चुटकीमे
सम्बन्ध तोड़ि देबै कि !
तेँ
भोरसँ साँझ,
साँझसँ राति पड़िते
खुरदाङ्गिकऽ मारि दैत रहैत छी
चिन्ताक खुरसँ
हियामे उमड़ल
अहाँ नामे फूलकेँ।
किछु जोड़ीक नाम सोचिते
स्नेह प्रति
सान बढैए
सगरमाथाक उठानसन
कहू तँ
कतेक सुन्नर नाम थिक ?
हिर-रांझा
रोमियो-जूलियेट,
लैला-मजनू
सोनी-महिवाल
राम-सिया
सलहेस-कुशमा
शिवसिंह-लखमा
मुना-मदन
धीरू-रूपा
हँ, हमहूँ सएह रांझा
सएह मजनू
सहए महिवाल
सहए राम
सहए सलहेस
सहए शिवसिंह
सहए मदन
सहए धीरू
बनऽ चाहैत छी
सगरमाथाक शीरसन
अपन शीरक ध्वजा
फहराबऽ चाहैत छी
जिनगीक आकासमे
तेँ
हे प्रिय !
आउ स्वीकारि
सोँपि कऽ दी
एक दोसरकेँ समर्पण
यूगो-यूगधरि।