स्त्री
स्त्री
अबला और सबल ,
के बीच बढ़ चली स्त्री चाँद तक ,
मौन तोड़ कर …
अपने सपने ख़ुद बना रही है ,
बुन रही है ख़ुद ही …
मकड़े के जाले को काट …
चूल्हा चौकी से बाहर एक संसार ,
वो सफ़ल हो रही है हर कदम पर ,
पुरुष का पौरुष भी उन से हैं ,
उस वृक्ष का सृजन वही हैं ,
उसे नहीं चाहिए ,
पत्थरों में लोग उसे पूजें
पूजा पाषाण खण्डों की मोहताज़ नहीं ,
पूजा फूल ,फल , रौली की मोहताज़ भी नहीं ,
प्रकृति ने जिसे बनाया है वो नायाब है , अद्वितीय है , वो पूजनीय है ,
स्त्री पुरुष पूरक हैं एक दूजे के ,
श्रेष्ठ बनने के चक्कर में हम भूल गए ,
खुद के पूरक होने को ,
सभ्यताएँ बीत गई बरसों की ,
हम कब बदलेंगे ??
नहीं जानता …?
माणिक्य बहुगुना