‘स्त्री’
स्त्री:-
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मंद तैरती मुस्कान है , वो
गीता गुरुग्रंथ क़ुरान है, वो
बच्चों सी नादान है, वो
पश्त हौसलों की ऊँची उड़ान है , वो ..
मृदुतम सहलाहट है, वो
नैसर्गिक खिलखिलाहट है , वो
चट्टानों सी अटल है, वो
कांटो में कमल है , वो
अंतर्मन की आवाज़ है, वो
सच्ची सज़ल रिवाज़ है, वो
ममता का आँचल है, वो
आँखों का काज़ल है, वो
फुहारों सी मद्दम है, वो
धाराओ सी द्रुततम है, वो
गंगा सी शीतल है, वो
ख़ुशियों के पल है, वो
विश्व की मधुपटल , दुःख में ना हो कभी विकल
सुखो का निर्वाण है ,संबंधों का प्राण है वो…….
— विवेक मिश्रा