स्त्री का घोषणा पत्र-1
पहले-
मैं चारदीवारी में कैद थी
पर अब-
धरती के किसी भी हिस्से पर
खड़े-खड़े, दूर-दूर तक
दिक् और काल तक
मैं देख सकती हूं-सुन सकती हूं
आह्लादित हो सकती हूं.
अब भूत-भविष्य-वर्तमान
मेरे भीतर स्पंदित हो रहा है
मेरा यह वर्तमान
अब तक का
सबसे चमकता समय है.
‘समय’ के अंधेरे से
कोई बाहर निकल आई हैं
तो कोई निकल रही हैं
आह्लादित हो रही हैं रोशनी से
आज की स्त्री.
अरे कथित संस्कृतिधर्मियों,
जड़ राष्ट्रवादियों!
पूछिए किसी स्त्री से
कि क्या वह-
लौट जाना चाहेगी
पुरा काल में-
जब न उसकी कोई पहचान थी,
न ही कोई व्यक्तित्व?
वह समय तो-
स्त्री-जीवन का
त्रासद काल था जब
पति-बच्चे-किचन
था उसका पूरा जीवन
और सर पर पड़ी थी
दकियानूसी परंपरा
और मर्यादाओं की
सड़ी-गली-सड़ांध मारती
भारी गठरी.
कोई भी स्त्री नहीं जाना चाहेगी
उस पुरा युग में.
हालांकि
खतरे-अभी कम नहीं हुए हैं
उनकी राह पर.
अब भी पुरातनवादी शक्तियां
परंपराओं/संस्कृति की
दुहाई देकर
‘पाश्चात्य’ का भय दिखाकर
देवी-सती-साध्वियों का
आदर्श पेश कर
बेड़ियां कसने की रच रही हैं साजिशें
स्त्रियों!
तर्क, विवेक और उद्यम को
सहेली बनाकर
साजिशों को मात देते
बस बढ़े चलो आगे