स्त्री एक रूप अनेक हैँ
स्त्री एक रूप अनेक हैँ
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स्त्री एक रूप अनेक है,
हर रूप मे वो नेक है।
ममतामयी रूप प्यारा,
मां के रूप में दर्वेश है।
बेटी बिना घर अधूरा,
बेटी से पूर्ण परिवेश है।
प्रेयसी रूप हैँ मस्ताना,
परियों सा धारा भेष है।
भार्या बन कर भार हरें,
संगिनी चलती हमेश है।
बहन भाई संगी साथी,
ना मन में कोई द्वेष है।
बुआ से मुंह भर जाए,
मौसी माँ का ही वेश है।
दादी नानी घर है पहरा,
मिटते घरेलू क्लेश है।
बापू के सिर की पगड़ी,
पति के घर की मेख है।
स्त्री सखा सहेली होती,
खुशियों का परिवेश है।
मनसीरत हो स्त्री पूजन,
स्त्रियो से देश प्रदेश है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)