स्त्रीत्व
देवालयों में जिसको पूजा समझकर दुर्गा-काली,
सरेआम सड़कों पर उसको बना डाला है पांचाली,
जिसके लिए सजती मंदिरों में पूजार्चना की थाली,
उसी कान्ता पर उड़ेल रही आवाम तेजाब की प्याली।
न शर्म-न लिहाज, न ही संस्कृति का दिखता बोध,
क्या पता किस खेत की उपज हैं ये खरपतवार लोग,
कैसी फैली ये महामारी, कैसा लगा लाइलाज रोग,
बदन के बाबत कैसा घिनोना बढ़ता देखो यहाँ क्षोभ।
जुल्म औरतों के साथ बन चला पुरुषों का श्रृंगार,
क्या खूब फला है देखो अपने कलियुग का कारोबार,
अब तो किसी मुरलीधर का भी नहीं कोई ऐतबार,
जब दुस्सासन बैठा हो घर-घर, है हर द्रौपदी लाचार।
जिस कोख से जन्मा हर मानुष उसका है ये अपमान,
न जाने कैसा खड़ा हो रहा बदसुलूकी का कीर्तिमान,
कयास है फिर से लौट आ रहा है युग-ए-पाषाण,
गर्भ में मरती है बेटियाँ, और पत्थरों में पाती गुणगान!
डूब मरो माँ के नालायक बेटों,बहन के बेगाने भाई-जन,
चुल्लू भर पानी ज्यादा है,थूक में समा जाने का करो प्रबन्ध,
निकलेगी बूत से जिस दिन भी लक्ष्मी-दुर्गा,होगा विकराल हवन,
याद रक्ख उसी हवन में तेरी करतूतें और तू भी हो जायेगा भसम।