स्तिम मैं चुपचाप सहता तो अच्छा था।
जो राज़ था वो बस राज़ ही मैं रखता तो अच्छा था।
तुमने छोड़ा मेरा हाथ पर, मैं कुछ न कहता तो अच्छा था।
न मालूम था ये राज़, खुल जाएगा इक दिन इस तरह;
अपनी शायरी में तुम्हें गुमनाम ही रखता तो अच्छा था।
बस में मेरे भी तो सब कुछ नहीं था सुनो ऐ हमसफ़र;
इश्क खुशबू सा बिखर गया, मैं अंजान ही रहता तो अच्छा था।
तुम्हें जो लोग ताना देते हैं, हमराज़ कह के आजकल;
मेरी ग़ज़ल में तेरा नाम , मैं न ही लिखता तो अच्छा था।
बेवफा न मैने कभी कहा तुम्हें, सच कहता हूं ऐ हमनशीं;
गैरों ने दिया इल्ज़ाम ,स्तिम मैं चुपचाप सहता तो अच्छा था।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !