सोलह आने सच
सोलह आने सच आज
यह बात भी सिद्ध हो गयी,
एक बार प्रकृति पुनः
पुरुष पर भारी हो गयी।
प्रकृति पर विजय के दावे
खोखले सिद्ध हो रहे,
उसकी मार जब पड़ती हम
हाथ पे हाथ धरे खड़े रहे।
घायलों के चीत्कार से आक्रांत
लाशों से पट गयी धरती,
अकारण ही बिना युद्ध के
भीषण नरसंहार हो ही गयी।
रक्त रंजित उड़ीसा की जमीं
जगन्नाथ का धाम भी उदास,
बस चल रही वहाँ अनवरत
अपनो के लाशों की तलाश।
कलम खामोश देख हादसा
मुखरित वाणी भी है मौन,
इन तमाम मासूमो को अब
दिलासा दे समझाएगा कौन।
पहले ही अनाथ कम थे क्या
जो मांग इनकी और बढ़ गयी,
भगवान इनकी सिसकियों से
तुम्हे क्यों फरक नही पड़ती?
वे मासूम जो इस जग को
अभी ठीक से देख नही पाये,
उनसे कौन सी गलती हुई जो
इतनी भयानक सजा वे पाये।
सिर विहीन हुए अनेकों तन
धड़ो के कितने टुकड़े हो गये,
हाथ पैर विहीन लोगो की
गिनती करने से हम रह गये।
ऐसे हादसों से हे परमात्मा
तुम पर से विश्वास उठ रहा,
कुछ तो चमत्कार दिखलाओ
अब आस्था का मखौल उड़ रहा।
आखिर ऐसे मातमों से तुम
भी खुश तो नही ही होगे,
निर्मेष अपनी बनाई दुनिया मे
क्रमशः तुम भीअजनबी हो रहे।