सोया है देश मेरा
सोया है मेरा गांव
घोड़े बेचकर..
ठीक इसी प्रकार
सोया है मनुष्य,
नहीं मालूम इन्हें
आज की ऐसी रात चीरा था..
हृदय भारत मां का।
बंटे थे घर, जमीन,
बही थी नदियां…
निर्दोष खून की।
लुट रही थी आबरू…
स्त्रियों की नहीं,
भारत मां की!
पाई थी मुक्ति पीड़ा से
किन्तु अथाह पीड़ा मिली,
खरोंचे गए जख्म,
फटा था दुकुल…
चिथड़ों में भारत मां का।
सोया है देश भी
नहीं याद आज की रात…
मची थी त्राहि,
भारत भूमि पर…
साम्प्रदायिकता से,
खिंचीं गई थी लकीर!
जिसके व्यूह को भोगा…
नासमझ प्रजा ने,
झेले थे प्रहार बचाने इज्जत,
फिर भी हिंसकों ने…
नोचा था बदन,
भारत मां का।
उठी थी माता, असहाय…
साहस से पाया सूर्योदय,
सहलाया जख्मों को।
किया एकाकार…
बांधें बंधन, उपकार…
क्योंकि संभालना था,
बिलखते बच्चों,
पशु – पक्षियों को।
देकर आजादी का अमृत-रस
स्वालंबन बनाना था…
अर्द्ध खिली मुस्कान में
हंसा था चेहरा भारत मां का।।
लेकिन देखो!
सोया है यह मजहब,
हर मनुष्य,उसका जमीर,
सोया है प्रत्येक घर का
प्रकाश, चिराग…
बस तू जागता है..जगाने को
जागता है व्योम, सितारे,
चांद, और यह तिमिर…
क्योंकि साक्षी है उस रात के
जहां कोई नहीं सोया था।
बस विभाजन होया था।।
रोहताश वर्मा ” मुसाफिर “