सोच
गिरी हुई सोच को पर कैसे लगें?
सुना है, ज़ख्मी परिंदों को आसमान नहीं मिलता।
उड़ती हुई सोच को कैसे रोकें?
एयरपोर्ट आने से पहले प्लेन लैंड नहीं करता।
राह पर चलते वक्त सिक्का गिरा,
तुरंत झुककर उठा लिए।
देखो, हमारी सोच गिरी है,
उसको कब उठाएंगे?
“अरे, उठा लूं जल्दी से सिक्का,
वरना कोई उठा ले जाएगा।”
ऐसा डर ऐ नादान,
कब तेरे दिल पर छा पाएगा?
अपनी सोच को उठा ले बन्दे,
वरना बहुत पछताएगा।
सब हँसेंगे तुझपे,
और तू बस हाथ मलता रह जाएगा।
कैसे बताऊं मैं, “कैसी सोच को बदलना है?!”
अख़बार पढ़ो, ख़ुद समझ जाओगे।
पढ़ने के बाद ये ज़रूर सोचना,
“ख़ुद को कब समझाओगे?!”
अपनी सोच को अपनी मुट्ठी में ही बांधे रखना।
अपनी उस सोच को ऊपर बिल्कुल मत उछालना।
उछाली हुई सोच, तुरंत उड़ने लग जाएगी।
रेत-सी है वो, हाथ में नहीं आएगी।
अब सवाल ये उठता है,
“तो हम क्या करें?”
चलो, भागदौड़-भरी बदलती इस दुनिया में,
अपनी सोच को लेकर आगे बढ़ें!
ज़माना बदल गया, लोग बदल गए।
क्यों न अपनी सोच को भी बदल लिया जाए?!
लेकिन संभलकर, इस क़दर,
कि किसी के संस्कारों को नुकसान न पहुँचाएं!
चलो, अपनी बदली हुई सोच के साथ उड़ा जाए।
उड़ें हम इस तरह कि परिंदों को तकलीफ़ न हो पाएं।
न अपनी सोच को ज़्यादा उड़ने देंगे,
न इसे ज़मीन ज़्यादा छूने देंगे।
बस, हाथ पकड़कर इसका,
हम आगे बढ़ चलेंगे।
इस अंधेर-भरी दुनिया में,
अपनी सोच से रौशनी लाएंगे।
इस सोती हुई दुनिया में,
सबको नींद से जगाएंगे।
सोच से अपनी, नया सवेरा लाएंगे।
ख़ुद सो जाएंगे भले ही हमेशा के लिए,
लेकिन कभी अपनी सोच को नहीं सुलाएंगे।
✍️सृष्टि बंसल