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17 Jul 2021 · 3 min read

* सोच *

डा. अरुण कुमार शास्त्री / एक अबोध बालक / अरुण अतृप्त

शीर्षक – * सोच *

मेरी लघुकथा का कथानक एक छोटा सा बच्चा , नाम दीपक, जिसका सम्पूर्ण परिवार 2 साल पहले एक प्राकृतिक आपदा का शिकार हो गया था जब वो 11 साल का था , सरकारी अनाथालय व विधवा गृह में उसकी शिक्षा दीक्षा लालन पालन हुआ और उसने एक संयमित छात्र की तरह विज्ञान के विषयों के साथ इन्टर पास की-सरकारी

स्कूल के मुख्य अध्यापक उस से बहुत प्रभावित थे अब तक उसकी उमर भी 18 साल की हो चुकी थी |
उन्होने लिखा पढी करके उसको गोद लेने का लोकाचार पूरा किया व उसको अनाथालय से घर ले आए | उन्होने उससे उसकी भविष्य की इच्छा पूंछी तो वो बोला मास्टर जी मुझे कोई नोकरी दिला दिजिए , वो बोले अभी नोकरी करोगे तो फिर आगे की पढाई न हो सकेगी | दीपक समझदार बालक थे बोला दिन में पढून्गा व रात में काम करूंगा |

उन्होने उसकी बात मान् एक दुकान मे उसे हिसाब किताब लिखने की नोकरी दिला दी | उसके व्यवहार व मेहनत व इमानदारी से दुकान का मालिक बहुत प्रभावित हुआ | उसने मन ही मन उसको अपना मान लिया , मास्टर जी से चर्चा करके उसके लिए अपनी लड्की का रिश्ता लेके उनके पास आया | मास्टर जी खुश हो गए लेकिन एक शर्त रख दी के जब भी दीपक इस विषय मे उनकी बात माँ लेगा तब ही वो उसको लेके उसके घर आयेंगे | क्युंकी उसकी *सोच कुछ अलग ही है कुछ बडा करने का मन है उसका |
दुकान के मालिक ने उनकी शर्त मान ली , विधि का विधान देखिए अगले दिन जब दीपक दुकान पन्हुंचा तो उसके मालिक की जगह कोई लड्की दुकान पर बैठी थी, पूंछ्ने पर पता चला कि वो दुकान मालिक की इकलोती लड्की थी , उसका नाम निवेदिता था और वो इन्टर पास थी उसके पिता उसको अब आगे न पढा उसका विवाह करना चाह्ते हैं , आज उनका स्वास्थ्य ठीक न होने से मजबूरी में उसे आना पडा |
दीपक ने अपना परिचय उसे देना चाहा तो वो बोली मुझे पता |
पहली बार दोनो ने एक दूसरे को ध्यान से देखा , देखते ही निवेदिता उसके प्रति आकर्षित हो गई | आस पास के लड़कों से वो अलग ही था , उसकी सोच मे एक मेहनती व्यक्तित्त्व छुपा था , कोई भी उसको देखते ही पहचान सकता था उसके दृढ संकल्प दूर दृष्टि व नेक नीयत को , यही सब खूबी निवेदिता को एक बार में ही दिखी | उसके पिता उस से दीपक के बारे मे पहले से सब चर्चा कर चुके थे |
शाम को दुकान बन्द करते समय निवेदिता उसको अपने साथ् घर ले गई , उसके पिता बहुत खुश हुए सबने एक साथ् भोजन किया , निवेदिता की माँ नही थी वो भी उसी प्राकृतिक आपदा का शिकार हो चुकी थी , दीपक और निवेदिता के जीवन का ये अंश एक समान था , इस बात से दीपक को उन सब से व उन सबको दीपक से सहानुभूति जन्य स्नेह उत्पन्न हो चुका था |
माधव राव निवेदिता के पिता अगले दिन स्वस्थ होकर दुकान पहुँचे , दीपक भी समय से आ गया था इतने में मास्टर जी भी आ गए , उस दिन रविवार का दिन था , माधव राव जी ने मास्टर जी से दीपक और निवेदिता की शादी की बात दीपक के सामने ही रख दी , मास्टर जी ने दीपक की तरफ देखा तो उसकी मन्द मन्द मुस्कान से उन्होने अन्दाज लगा लिया , और फिर दीपक का हाँथ उन्होने माधव जी के हाँथ देते हुए कहाँ मेरी जिम्मेदारी पूरी अब आप दोनो जानो – इतने में निवेदिता घर से सबके लिए भोजन व मिष्ठान लेके आ गई – उत्सव का माहोल बन गया सबने बैठ कर भोजन का आनन्द लिया और भविष्य के सपने सजाने लगे | सृष्टि के रचनाकार के अपने विधि विधान हैं वो एक तरफ का दरवाजा बन्द करता है तो दूसरी तरफ पूरा ब्रह्माण्ड प्रस्तुत कर देता है – इस कथा में यही हुआ | बस जरुरत थी तो आस्था निष्ठा व कर्तव्य परायणता की जो इस कथा में मूलतः दृष्टिगत है ही …

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