सोच और रूह का फर्क
अजीब सा सुरूर है इस जहां ए महफ़िल का,
हर इक को पहले गालियां फिर तालियां देता है,
जब तक अपनी जान पर बन ना आए किसी की,
दूसरों के दर्द तकलीफ को महसूस कौन करता है,
सैनिक की शहादत पर सिकती हैं सियासत की जो रोटियां,
बताओ किसी अपने के मरने पर कौन सियासत करता है
शिकार होता कोई इकबाल या मोहम्मद भीड़ हिंसा का,
तो न्याय का बन्द दरवाज़ा भी तोड़ दिया जाता है,
वहीं जब दो साधु शिकार हुए इस भीड़ हिंसा के,
तो सहिष्णुता की आड़ में क्यूं सब छुपाया जाता है,
सितारों के टूटने पर डूब जाता है देश गम के माहौल में,
लेकिन चांद के बिखरने पर ख़ामोश की चादर देश ओढ़ लेता है,
कोई लगाता जब शान से गद्दारी के बेखौफ नारे,
तो विश्व भर में ट्रेंड में छा आराम से जाता है,
लगे कहीं यदि देशहित ओ स्वाभिमान के नारे,
गुमनामी की चादर से सब क्यूं छुपाया जाता है,
पत्थर मारते चंद लोग इंसानियत के रखवालों को,
तो देश घायल शेर की भांति घुर्राता वार करता है,
पर जब होता स्वागत देश के इन वीर चिरागों का,
तब घायल शेर भी मुस्कराकर साथ में शीश झुकाए होता है।