सोचिए न !
सोचिये न !
(सार छंद)
*************************
अपने सूरज को हाथों ले, जो प्रकाश फैलाता ।
दग्ध हुआ करता है लेकिन, स्वयं सूर्य बन जाता ।।
आओ अपने अंतर्मन का, हम सूरज दमकायें ।
फैल गया है जो अँधियारा , उसको दूर भगायें ।।
*
नेक कर्म जिनके होते हैं, माया नहीं सताती ।
भोले-भले सभी को उनकी, संगत बड़ी सुहाती ।।
कपटहीन जिनका मन होता, लोचन नहीं झुकाते ।
प्राण त्याग कर जब वे जाते, वैतरणी तर जाते ।।
*
सोचो देखो तो अतीत को, कर्म हमारे कैसे ।
कोष भरे कंचन के हमने, मात्र कमाये पैसे ।।
सुत लायक तो चिन्ता क्या है, धनी स्वयं बन जाता ।
मात-पिता की सेवा करके, वह अनुपम सुख पाता ।।
*
राधे…राधे …!
?
महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।