सोचती हूं …
सोचती हूं …
भूल जाऊं तुम्हें
भूल जाती हूं जैसे
ऑंख के आंगन में उतरे ख़वाब
सहर होते ही वैसे
सोचती हूं …
मिटा दूं मानस पटल से तुम्हें
ठीक वैसे
सिगरेट से उठता धुंआ
मिट जाता है आखरी कश पे वैसे
मगर मेरी जान
भुलाऊं कैसे ?
मिटाऊं तुम्हें कैसे ?
धड़कते दिल की तुम धड़कन हो जैसे
बदन के सलवटों से लिपटे रूह हो जैसे
इस्म और जिस्म अपना ही भूल जाऊं कैसे
रूह ए लिबास बदन से हटाऊं कैसे
कांपते होठों के चारदीवारी से
तेरे नाम की गुदगुदी मिटाऊं कैसे
~ सिद्धार्थ