सोचता हूँ तो है मुद्दआ कुछ नहीं
वस्ल का हिज़्र का सिलसिला कुछ नहीं
या के जी में तेरे था हुआ कुछ नहीं
लोग पाए हैं तुझसे बहुत कुछ अगर
तो मुझे भी मिला देख क्या कुछ नहीं
आदमी आदमी से परीशाँ है, क्या
आदमी आदमी का भला कुछ नहीं!
हाले दिल कह न पाया किसी तर्ह तो
कह दिया बस के जी! माज़रा कुछ नहीं
चाहता हूँ मैं लड़ता रहूँ यार पर
सोचता हूँ तो है मुद्दआ कुछ नहीं
आईने की शिक़ायत भला क्यूँ मिंयाँ?
वह दिखाता है बस, देखता कुछ नहीं
फिर भी ग़ाफ़िल है रुस्वा हुआ इश्क़ में
जबके सब मानते हैं ख़ता कुछ नहीं
-‘ग़ाफ़िल’