सोचता था लिखूँ तुझको उन्वान कर
तू मना कर दिया जाने क्या जानकर
सोचता था लिखूँ तुझको उन्वान कर
पा लिया मैं ख़ुशी उम्र भर की सनम
दो घड़ी ही भले तुझको मिह्मान कर
फिर रहे क्यूँ शिक़ायत, अगरचे मिले
आदमी आदमी को भी पहचान कर
मैं तुझे खोजता ही रहा तू मुझे
किस तरह एक दूजे का अनुमान कर
मैं चला जाऊँगा तेरे कूचे से तू
भूल जाना मुझे बेवफ़ा मान कर
मैं कहा तो था ग़ाफ़िल सुना तू कहाँ
यह के यूँ अपने दिल की न दूकान कर
-‘ग़ाफ़िल’