*सेहरा-लेखक फॅंस गया (हास्य व्यंग्य)*
सेहरा-लेखक फॅंस गया (हास्य व्यंग्य)
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हुआ यह कि सेहरा-लेखक फॅंस गया । ‘सेहरा’ उसे कहते हैं जो विवाह के समय जयमाल के अवसर पर बारातियों और घरातिओं की भीड़ के सामने कवि द्वारा लय में सुनाया जाता है । यह कविता होती है । इसे काव्यपाठ भी कहा जा सकता है । इसमें श्रोताओं को काव्य-प्रेमी होना आवश्यक होता है । बीसवीं शताब्दी तक सेहरे खूब लिखे गए लेकिन इक्कीसवीं शताब्दी में सेहरों का प्रचलन कम हो गया बल्कि कहिए कि समाप्त होने लगा । मगर दुर्भाग्य देखिए, एक सेहरा-लेखक से विवाह में आयोजकों ने सेहरा लिखवा लिया और उन्हें निमंत्रण दे डाला कि आप विवाह के अवसर पर सेहरा पढ़ दीजिए ।
कवि महोदय ने अपनी काव्य-कला के सारे गुण सेहरे में उपस्थित कर दिए। शानदार सेहरा लिखा । जेब में रखकर विवाह-समारोह में पहुंच गए । ‘जेब में रखकर’ -इसलिए क्योंकि विवाह के आयोजक महोदय ने सेहरे को किसी प्रिंटिंग प्रेस में छपवाने का कष्ट नहीं किया था। सेहरा-लेखक ने इस घटनाक्रम की बारीकी को महसूस नहीं किया । वह तो बेचारे उत्साह से सराबोर थे कि जीवन में पहली बार अब इक्कीसवीं सदी में एक सेहरा लिखने का शुभ अवसर मिला है । उसका पाठ करना है।
बेचारे ! जयमाल के निर्धारित समय से आधा घंटा पहले पहुंच गए । वहॉं सिवाय होटल के कर्मचारियों के उस समय कोई नहीं था । सेहरा-लेखक काफी देर तक काफी लोगों को यह समझाते रहे कि वह ‘सेहरा-लेखक’ हैं । लेकिन किसी ने उनको कोई महत्व नहीं दिया । यहॉं तक कि रिसेप्शन पर जब वह काफी देर बैठने लगे, तब उनसे नाराजगी के स्वर में यह भी पूछा गया कि आप किस काम के लिए आए हैं ? सेहरा लेखक ने तपाक से उत्तर दिया -“हमने सेहरा लिखा है । हम उसे पढ़ने के लिए आए हैं । ”
कर्मचारी ने उन्हें उपेक्षा के भाव से देखा । उनकी जेब में कलम लगी हुई थी और एक मुड़ा-तुड़ा कागज चमक रहा था।
“ठीक है, बैठ जाइए।” -कहकर कर्मचारी ने उसके बाद उनसे कुछ नहीं कहा । ‘कुछ नहीं कहा’ अर्थात उनको टोका नहीं, बैठने दिया।
सेहरा-लेखक उस समय प्रसन्न हो गए, जब आयोजक कार से पधारे । जैसे ही सेहरा-लेखक ने आयोजकों को देखा, वह दौड़ कर उनसे मिलने गए । दोनों में नमस्ते हुई । लेकिन आयोजकों ने कहा “आप बैठो, अभी और कार्यक्रम चल रहे हैं ।” फिर उसके बाद लोग आते गए, कार्यक्रम चलता रहा।
एक के बाद दूसरा कार्यक्रम होता गया। यहॉं तक कि जयमाल भी संपन्न हो गई । बीच-बीच में सेहरा-लेखक महोदय आयोजकों के पास जाकर पूछ लेते थे -“क्या सेहरा पढ़ लूॅं ?”
लेकिन आयोजक महोदय रूखे स्वर में कहते थे -“आप देख रहे हैं, मंच पर कितना अच्छा कार्यक्रम चल रहा है । अभी सेहरा पढ़ने का समय नहीं है ।”
धीरे-धीरे रात बीतने लगी। सेहरा लेखक कमर कस के आए थे कि उन्हें विवाह में सेहरा अवश्य पढ़ना है । अर्धरात्रि में जब काफी लोग सो गए, तब जाकर फेरों का कार्यक्रम हुआ। सेहरा-लेखक फेरों के समय भी बराबर जागते रहे और इस बात के लिए तैयार थे कि आयोजक तनिक-सा इशारा करें, तो वह तुरंत सेहरा पढ़ दें । लेकिन कोई इशारा नहीं आया ।
सुबह हो गई । विदा का समय था । चारों तरफ मामला अस्त-व्यस्त था । बारात जाने को थी । काफी लोग इस समय जैसा कि होता है, कुर्सियों पर अस्त-व्यस्त बैठ जाते हैं । वातावरण उजाड़-सा था। सेहरा-लेखक अभी भी इस उम्मीद में थे कि शायद उनसे सेहरा पढ़वा लिया जाएगा । यद्यपि जिनके सामने उसे पढ़ा जाता, वह दो-दो की टोली में इधर-उधर बिखरे हुए थे । न माइक की व्यवस्था थी, न कोई सुनने वाला था । बेचारे सेहरा-लेखक जब विदाई भी हो गई और होटल खाली होने लगा तब दरवाजे पर मायूस होकर खड़े हो गए । होटल के कर्मचारी ने जो कि उन्हें शाम से लगातार जेब में पेन डाले हुए देख रहा था, पूछा -“भाई साहब आप कल शाम से इस होटल में मुस्तैदी से तैनात दिख रहे हैं, भला किस लिए आए थे ?”
सेहरा-लेखक ने उत्साह में भरकर कर्मचारी से कहा “मुझे सेहरा पढ़ना था । लेकिन क्या करूं, किसी ने आमंत्रित ही नहीं किया ।”
कर्मचारी बोला “अब सेहरा कौन पढ़ता है ? और सुनने वाला भी कहॉं सुनता है ? फिर भी अगर आपको सुनाना ही है, तो मुझे सुना दीजिए । मैं सहन कर लूंगा ।”
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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