सेमर
कल मैंने जब देखा तुमको, बैठे बस की खिड़की से।
लाल तुम्हारे रंग चमकते, खींच रहे थे मेरे मन को।
मन करता था आकर चुनूं, धरा धरे उन फूलों को।
पतझड़ भी आकर जहां, बैठ निहारे लाली को।
इस नीरस जग में भरते तुम, सुंदरता की आभा हो।
देख नैन सुख पाएं तुमको, सेमर तुम वो आशा हो।
मैं था विष्मित देख रहा, प्रकृति के सुंदर वर्णन को।
कितना स्नेह है भरा पड़ा, इस धरती के अंचल में।
हर कोई मोहित हो जाता, देख तुम्हारी लाल पंखुड़ियां।
कितनी सुंदर लगती होंगी, तुमकों चुनती बड़भागी चिड़ियां।
बहुत मनोहर, अधिक प्रबल इठलाते तुम हो खुद पर।
तुम भरते हो खुशहाली, उन बिन पत्तों की डाली पर।
सेमर तुमको क्या बतलाऊं, शब्द नहीं हैं कहने को।
तुमको देख अधर याद आता उस चंदा सी चंचल के।
तुम हो सेमर, वो सेमर सी।
मैं नीरस मैं रूखा हूं, बस तुमसे ही लूटा हूं।
(विकास वशिष्ठ *विक्की)