सेब का आठवां भाग
घर में कभी कभार ही
खरीदकर आता था।
सेब का आठवां भाग,
हिस्से में पाता था।
खाता था,
ललचाता था,
पछताता था।
काश! थोड़ा और मिलता।
अब किसी चीज न दरकार,
आज पास में हैं पैसे चार।
अब तो पिस्ता भी
मूंगफली के भाव लगता है।
मगर कहां ख्वाहिशों का
बाज़ार सजता है।
बेशक परिवार बड़ा था,
प्यार के धागे में जड़ा था।
एक दूसरे के लिये,
एक साथ खड़ा था।
फलों से सजी डलिया अब
उतना नहीं सुहाती है।
लेकिन आठवें भाग के हिस्से की
अब भी याद आती है।
-सतीश शर्मा, सृजन, लखनऊ.