सेना की शक्ति
एक बार की बात है,, एक नगर था धरमपुर। और वहाँ के राजा भी बङे धर्मात्मा थे। वह मान में युधिष्ठर,, तो दान में कर्ण के समान थे। प्रजा को प्रसन्न रखना जानते थे,, पर वह सुखी नहीं थे।
कारण—————
करमपुर के महाराज!
जी हाँ,, दरअसल वह अपनी तुलना करते थे करमपुर के महाराजा साहब से। जिनकी सेना की कतार जब लगती थी तो राजमहल से 10 कोस दूर तक सैनिकों की पलटन होती थी। अस्त्र-शस्त्र से संपन्न,, तन-मन से प्रसन्न सैनिक,, दो हजार घोङे,, 100 हाथी।
यह सब धरमपुर के महाराज भी चाहते थे,,
पर न होने के कारण सोच में पड़ जाते थे।
उनका प्रजा में मान तो था,, पर वह इतने से खुश नहीं थे। एक बार उनकी दानवीरता की कथा सुनकर एक साधु उनके महल में पधारे। राजा ने उनका स्वागत पैर पखार कर किया। और कहा-“हे मुनिश्रेष्ठ! मेरा परम सौभाग्य,, जो आप पधारे। राजा ने उनके रहने का प्रबंध करवाया। और रोज सुबह साधु का आशीष पाने जाने लगे।
जब साधु ने बहुत दिवस व्यतीत किए तो उन्होंने राजा से कहा-“राजन! मैं अब जाता हूँ मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूँ- माँगो राजन! कोई वरदान माँगो। राजा की सैन्य-लालसा पूर्ति हेतु उचित अवसर था। उन्होने कहा- मुनिवर मुझे धरमपुर के राजा के समान सेना चाहिए।
साधु- तथास्तु! तुम्हारा वचन सत्य हो! और वन की ओर चले गए
राजा ने सैन्य-मैदान में जाकर देखा तो दस कोस तक सैनिकों की लम्बी कतार,, दो हजार घोङे,, एक सौ हाथी।
शक्ति मिलने के कुछ क्षण बाद ही राजा में अहंकार आ गया।
उसने करमपुर पर आक्रमण कर दिया।
सेनायें बराबरी की थी,, भीषण युद्ध हुआ।
11वें दिन न तो करमपुर की सेना में कोई बचा,, न धरमपुर की सेना में। रणभूमि खाली पङी थी,, मानो हजारो लोग चिर-निद्रा में सो गए।
दोनों राजा दुःखी थे,, उनमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। एक वन को चला गया। दूसरा हिमालय के पर्वतों के बीच सत्य को खोजने चला गया।
शिक्षा- ज्यादा शक्ति भी लाभकर नहीं होती,, और अगर ईर्ष्या से पूरित हो तो सदैव विनाशकारी ही होती है।
———————————————————-भविष्य त्रिपाठी