श्रीराम वन में
कुण्डलिया छंद
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(१)
कानन में बिन पादुका, लिये चाप-शर हाथ ।
जगजननी को खोजते, तीन लोक के नाथ।।
तीन लोक के नाथ, संग हैं लक्ष्मण भ्राता।
स्वयम् भोगते दुःख, जगत के सब सुख दाता।।
पीत वसन मुनि वेश, गये प्रभु छोड़ सिंहासन।
तात वचन हित नाथ, फिरे भीषण वन-कानन।।
(२)
बंधन सेतु पयोधि में, पूर्ण हुआ अब काज।
चले नाथ भ्राता सहित, स्वर्णपुरी को आज।।
स्वर्णपुरी को आज, संग में कपिदल भारी।
तीन लोक के नाथ, चाप-शर कर में धारी।।
कहे नवल हैं व्यर्थ, दशानन के वैभव-धन।
काटेंगे प्रभु राम, दंभ माया के बंधन।।
– नवीन जोशी ‘नवल’
(स्वरचित एवं मौलिक)