सृष्टि और विनाश
श्रृष्टि और विनाश
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सृष्टि- विनाश की कथा है रोचक
ईश्वर ने दोनों निर्माण किया है।
‘सत्य’ व ‘शिव’ ही सुंदर जग में
कण-कण साक्षात्कार किया है।
कैसी अद्भुत श्रृष्टि रची है!
अगणित ग्रह-उपग्रह सारे हैं।
अखिल अदृश्य इस अंतरिक्ष में
अनगिन रवि, सोम और तारे हैं।
कोटिश: ग्रह-उपग्रह ब्रह्मांड में
रहस्य अज्ञात आज भी सारे।
विकास मनुज ने किया बहुत
खुद ही लेकिन खुद से हारे।
एक हाथ कुदरत माया की
मनमोहक पृथ्वी पर छाई।
सरि-सागर,जीव,गिरि-कानन
सब कुछ ही इसकी परछाई।
क्रीम कीट,जीवजन्तु मानव सब
थलचर, नभचर , जलचर सारे।
सर्वस्व प्रकृति के एक हाथ में
फिर श्रृष्टि- विनाश दूजे में है।
कुछ भी नहीं अमर है लेकिन
निश्चित ही सब नाशवान नर !
रक्षित हैं हम तब तक ही
कुदरत के जब संग हैं हम।
करेंगे क्षय जितना प्रकृति का
उतने असुरक्षित रहेंगे हम।
यह मर्त्यलोक है, सभी जानते
सुन्दर मात्र ‘सत्य’ और ‘शिव’।
अबाध अनवरत सृष्टि चलेगी जब तक प्रकृति से प्रेम रहेगा।
यह पृथ्वी लेकिन है कर्म लोक आना – जाना नित लगा रहेगा।
निरंतर प्रकृति विनाश में किंतु
मूढ़ मानव जब जुटा रहेगा।
अवश्य प्रकृति क्रोधित होगी
आक्रोश अकथ्य मानव झेलेगा।
धरा जब क्रोधित कंपित होगी नभ से तब अग्नि- वर्षा होगी।
सागर भी सारे हुंकार उठेंगे
सुन्दर धरती उस दिन डूबेगी।
नर ही सृष्टि- विनाश करेगा
आवागमन चक्र रुक जाएगा।
आने वाला फिर कोई न होगा
‘सत्यम् शिवम्’ शून्य तब होगा।
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता , मौलिक/ स्वरचित।