सृजन
भाव-भंगिमा, नव अभिव्यंजना,
रूप अलंकार , छंद कवि का गुंजन,
आंखे भर – भर आती हैं,
गीत सृजन, नव गीत सृजन।
पी न सकी पीड़ायें मुझ को ,
अवसाद भी कर न पाए निर्बल।
बिखरा न सका तूफ़ान भी मुझ को ,
विपदाओं से भी हुए न दुर्बल।
आत्म मुग्ध अभिमंत्रित तन है ,
करूणा से आप्लावित मन है ।
मंथर-मंजुल-मधुर स्मृतियां,
निर्झर बन कर बहती हैं अब भी,
गौरी शंकर बन शिखरों पर,
विचरण करती रहती हैं अब भी।