सृजन-ए-अल्फाज़
सृजन-ए-अल्फाज़ / दीपक बुंदेला “आर्यमौलिक”
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वीराना शहर
हो गया ये शहर वीराना यहां आनें से डरते हैं सब
देख कर मका ए खंडहर, दीवारे आहे भरते हैं सब
बीते बचपन की यादों में खो कर जो सिहरते हैं अब
बीत गया एक ज़माना तस्वीरों में देखा करते हैं सब
तंग मैं हूं या हैं ये ज़माना बैठ कर सोचा करते हैं सब
उठ वो आती हैं हूक ए याद जो टीसा करती हैं अब
बैठ आगोश ए तन्हाईयों में खुद से पूछा करते हैं अब
ना मिली हसरतें मंज़िलों की तो कोसा करते हैं सब
देख बनते मका शहर के गांव भी सोचा करते हैं अब
जोड़ते हैं ईंट गारा लोग फिर भी उनमें ठहरते हैं कब
मतलबी हैं सब यहां पर बसते लोग मतलबी यहां हैं अब
तोड़ देते हैं वो घरोंदा भी जहां प्यार से रहा करते हैं सब
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बेरोज़गार
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ये दर्द भी वो किससे कहें इस बेरोज़गारगी का, के लोग उन्हें वेरोज़गार कहते हैं…!
रख के ज़ेहन-ए-दिल में तमन्नाओ की ज़िन्दगी को जो वो हर हालत में भी जीते हैं..!!
मार लेते हैं ख्वाहिशों की तमन्नाए जो वो बस अपनों के सपनों की साकारगी के लिए जीते हैं..!
जो मर गई हैं सरकार ए आवामो की भी मुरब्बत के वो सुकू ए ज़िन्दगी से भी रीते रीते हैं..!!
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वे-काम-ए-डिग्रियां
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टंग गई अब डिग्रियां भी मका ए दीवार पे..!
लगती रही अर्जिया जो मंदिरों ए मज़ार पे..!!